मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3महर्षि वेदव्यास
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सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।25।।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।25।।
हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते
हैं आसक्तिरहित विद्वान् भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म
करे।।25।।
कर्म जीवन का अविभाज्य और सतत् अंग हैं और सामान्य जन अपने अधिकांश कर्म अनासक्त भाव से करते हैं, जिन्हें हम नित्य-प्रतिदिन के कर्मों के रूप में भी जानते हैं। जीवन जीते हुए सामान्य मनुष्य लगभग 14-15 वर्ष की आयु से धीरे-धीरे जब जीवन को समझने आरंभ करता है, तो कुछ प्रारब्ध के प्रभाव से, कुछ आनुवांशिकता के प्रभाव से और कुछ उसके आस-पास के वातावरण के प्रभाव से उसकी कुछ विशेष स्वाभाविक रुचियाँ मुखर होने लगती हैं। धन के प्रति आसक्ति आज के समय की विशेषता है, संभवतः ऐसा इस कारण से है, क्योंकि धन हमारी अधिकांश इच्छाओँ को पूरा करने का साधन है, इसलिए इस आयु से आरंभ होकर अगले दस वर्षों में लोगों की विशेष आसक्तियाँ स्पष्ट हो जाती हैं। समय के साथ अधिकांश लोगों के लिए इस प्रकार की आसक्तियाँ प्रबल होती जाती हैं। धन के प्रति जो आसक्ति व्यक्ति की 25 वर्ष की आयु में होती है, उससे 35 वर्ष की आयु में कहीं अधिक होती है। इसी प्रकार 45 वर्ष की आयु में उसे धन की आसक्ति 35 वर्ष की आयु से कहीं अधिक होती है। इसी प्रकार क्रमशः 55, 65 और 75 वर्ष की आयु में घटती जाती है। इसके विपरीत 15 वर्ष की आयु में धन की समझ और आसक्ति 25 से कहीं कम होती है, और पाँच वर्ष की आयु में तो आसक्ति की समझ ही नहीं होती। इस आसक्ति के विषय में चर्चा करने पर सामान्यतः यह कहा जाता है कि इस आयु में आवश्यकतायें और कर्तव्य इस धनासक्ति का कारण होते हैं, लेकिन लगभग 55 वर्ष की आयु में जब धन में आसक्ति घटने लगती है, तो इसका कारण मात्र आवश्यकताओं में कमी नहीं होती, बल्कि व्यक्ति अपनी क्षमताएँ भी जान जाता है, इसलिए वह परिस्थिति से समझौता करने पर विवश हो जाता है। इस प्रकार धन में आसक्ति उत्पन्न तो होती है, परंतु, वास्तविकता में सामान्य मनुष्यों में उसमें उतार-चढ़ाव आता रहता है।
शक्ति और नियंत्रण में जिनकी आसक्ति होती है, वह स्वभावगत होती है। जिन्हें दूसरों पर नियंत्रण करने में आनन्द आता है, वे किसी न किसी प्रकार इस आसक्ति को पूरा करने की योजनाएँ बनाते रहते हैं। इस प्रकार की आसक्ति का प्रभाव जिन पर पड़ता है, वे इससे लगभग जीवन पर्यन्त ग्रसित रहते हैं। यहाँ तक कि वृद्धावस्था में जब शरीर के बाकी अंग शिथिल हो जाते हैं, तब भी इनका मन और वाणी अन्य लोगों को अपने अधिकार में लेने के लिए प्रयास करती रहती है। इस प्रकार शक्ति अथवा नियंत्रण की आसक्ति धन की आसक्ति से अधिक स्थायी होती है।
सामान्यतः लोग अपने अधिकांश कर्म किसी न किसी आसक्ति के कारण करते हैं।
धन और नियंत्रण में आसक्ति मन पर प्रभाव डालती है, परंतु इसका अन्य कर्मेंद्रियों पर अधिक प्रभाव नहीं होता है। इंद्रिय जनित आसक्तियों में स्वाद और नेत्रों की आसक्तियाँ अत्यंत प्रबल होती हैं। नेत्रों की आसक्ति से प्रभावित लोगों का ध्यान हर समय सौंदर्य में अटका रहता है। इस आसक्ति से प्रभावित लोग हर क्षण अपने और अन्य लोगों के सौंदर्य की तुलना, समीक्षा अथवा आलोचना में व्यस्त रहते हैं। कभी-कभी इस विषय में इनकी आसक्ति इतनी प्रबल होती है कि वे अपने जीवन का अधिकांश भाग इसी विषय पर विचार करने में लगा देते हैं। इस प्रकार के लोगों के जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय भी आवश्यक गुणों की परीक्षा की अपेक्षा सौंदर्य की कसौटी पर किए जाते हैं।
आसक्ति कर्म में न होकर अधिकांशतः कर्मफल में होती है। जैसे प्रतियोगी परीक्षा का अभ्यार्थी प्रतियोगिता में सफल होने की आशा से आसक्ति करने लगता है। इस फलासक्ति का प्रभाव इतना अधिक प्रबल होता है कि कभी-कभी अभ्यार्थी अपेक्षित परिणाम न मिलने की संभावना में हर क्षण चिंता करते रहते हैं। इस प्रकार फलासक्ति चिंता का कारण बनती है। यह चिंता उनकी सफलता के मार्ग में खड़ी हो जाती है। यहाँ तक कि कभी-कभी अपेक्षित फल न मिलने से अभ्यार्थी गंभीर रूप से निराश हो जाते हैं और सामान्य जीवन जीने में भी कठिनाई का अनुभव करते हैं। हम सभी जानते हैं कि यदि अभ्यार्थी ने फलासक्ति की चिंता छोड़ संतुलित बुद्धि से प्रयास किया होता तो उन्हें वांछित फल मिलने की संभावना बढ़ जाती।
भगवान् कहते हैं कि ज्ञानी व्यक्ति यदि उपरोक्त किन्हीं भी परिस्थितियों में अपने आपको पाता है, तब वह कर्म अथवा कर्मफल की आसक्ति छोड़कर संयत मन और बुद्धि से ये सभी कार्य करता है। उसे इनमें आसक्ति नहीं होती है, परंतु लोकसंग्रह के लिए अर्थात् अन्य लोगों के समक्ष प्रोत्साहित करने वाला उदाहरण प्रस्तुत करते हुए पूरी एकाग्रता से कार्य करता है। इस प्रकार संयत मन और एकाग्र बुद्धि से कार्य करते हुए सहज सफलता प्राप्त करता है। उसके लिए कर्म सहज होते हैं, न कि फलासक्ति का पाश!
कर्म जीवन का अविभाज्य और सतत् अंग हैं और सामान्य जन अपने अधिकांश कर्म अनासक्त भाव से करते हैं, जिन्हें हम नित्य-प्रतिदिन के कर्मों के रूप में भी जानते हैं। जीवन जीते हुए सामान्य मनुष्य लगभग 14-15 वर्ष की आयु से धीरे-धीरे जब जीवन को समझने आरंभ करता है, तो कुछ प्रारब्ध के प्रभाव से, कुछ आनुवांशिकता के प्रभाव से और कुछ उसके आस-पास के वातावरण के प्रभाव से उसकी कुछ विशेष स्वाभाविक रुचियाँ मुखर होने लगती हैं। धन के प्रति आसक्ति आज के समय की विशेषता है, संभवतः ऐसा इस कारण से है, क्योंकि धन हमारी अधिकांश इच्छाओँ को पूरा करने का साधन है, इसलिए इस आयु से आरंभ होकर अगले दस वर्षों में लोगों की विशेष आसक्तियाँ स्पष्ट हो जाती हैं। समय के साथ अधिकांश लोगों के लिए इस प्रकार की आसक्तियाँ प्रबल होती जाती हैं। धन के प्रति जो आसक्ति व्यक्ति की 25 वर्ष की आयु में होती है, उससे 35 वर्ष की आयु में कहीं अधिक होती है। इसी प्रकार 45 वर्ष की आयु में उसे धन की आसक्ति 35 वर्ष की आयु से कहीं अधिक होती है। इसी प्रकार क्रमशः 55, 65 और 75 वर्ष की आयु में घटती जाती है। इसके विपरीत 15 वर्ष की आयु में धन की समझ और आसक्ति 25 से कहीं कम होती है, और पाँच वर्ष की आयु में तो आसक्ति की समझ ही नहीं होती। इस आसक्ति के विषय में चर्चा करने पर सामान्यतः यह कहा जाता है कि इस आयु में आवश्यकतायें और कर्तव्य इस धनासक्ति का कारण होते हैं, लेकिन लगभग 55 वर्ष की आयु में जब धन में आसक्ति घटने लगती है, तो इसका कारण मात्र आवश्यकताओं में कमी नहीं होती, बल्कि व्यक्ति अपनी क्षमताएँ भी जान जाता है, इसलिए वह परिस्थिति से समझौता करने पर विवश हो जाता है। इस प्रकार धन में आसक्ति उत्पन्न तो होती है, परंतु, वास्तविकता में सामान्य मनुष्यों में उसमें उतार-चढ़ाव आता रहता है।
शक्ति और नियंत्रण में जिनकी आसक्ति होती है, वह स्वभावगत होती है। जिन्हें दूसरों पर नियंत्रण करने में आनन्द आता है, वे किसी न किसी प्रकार इस आसक्ति को पूरा करने की योजनाएँ बनाते रहते हैं। इस प्रकार की आसक्ति का प्रभाव जिन पर पड़ता है, वे इससे लगभग जीवन पर्यन्त ग्रसित रहते हैं। यहाँ तक कि वृद्धावस्था में जब शरीर के बाकी अंग शिथिल हो जाते हैं, तब भी इनका मन और वाणी अन्य लोगों को अपने अधिकार में लेने के लिए प्रयास करती रहती है। इस प्रकार शक्ति अथवा नियंत्रण की आसक्ति धन की आसक्ति से अधिक स्थायी होती है।
सामान्यतः लोग अपने अधिकांश कर्म किसी न किसी आसक्ति के कारण करते हैं।
धन और नियंत्रण में आसक्ति मन पर प्रभाव डालती है, परंतु इसका अन्य कर्मेंद्रियों पर अधिक प्रभाव नहीं होता है। इंद्रिय जनित आसक्तियों में स्वाद और नेत्रों की आसक्तियाँ अत्यंत प्रबल होती हैं। नेत्रों की आसक्ति से प्रभावित लोगों का ध्यान हर समय सौंदर्य में अटका रहता है। इस आसक्ति से प्रभावित लोग हर क्षण अपने और अन्य लोगों के सौंदर्य की तुलना, समीक्षा अथवा आलोचना में व्यस्त रहते हैं। कभी-कभी इस विषय में इनकी आसक्ति इतनी प्रबल होती है कि वे अपने जीवन का अधिकांश भाग इसी विषय पर विचार करने में लगा देते हैं। इस प्रकार के लोगों के जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय भी आवश्यक गुणों की परीक्षा की अपेक्षा सौंदर्य की कसौटी पर किए जाते हैं।
आसक्ति कर्म में न होकर अधिकांशतः कर्मफल में होती है। जैसे प्रतियोगी परीक्षा का अभ्यार्थी प्रतियोगिता में सफल होने की आशा से आसक्ति करने लगता है। इस फलासक्ति का प्रभाव इतना अधिक प्रबल होता है कि कभी-कभी अभ्यार्थी अपेक्षित परिणाम न मिलने की संभावना में हर क्षण चिंता करते रहते हैं। इस प्रकार फलासक्ति चिंता का कारण बनती है। यह चिंता उनकी सफलता के मार्ग में खड़ी हो जाती है। यहाँ तक कि कभी-कभी अपेक्षित फल न मिलने से अभ्यार्थी गंभीर रूप से निराश हो जाते हैं और सामान्य जीवन जीने में भी कठिनाई का अनुभव करते हैं। हम सभी जानते हैं कि यदि अभ्यार्थी ने फलासक्ति की चिंता छोड़ संतुलित बुद्धि से प्रयास किया होता तो उन्हें वांछित फल मिलने की संभावना बढ़ जाती।
भगवान् कहते हैं कि ज्ञानी व्यक्ति यदि उपरोक्त किन्हीं भी परिस्थितियों में अपने आपको पाता है, तब वह कर्म अथवा कर्मफल की आसक्ति छोड़कर संयत मन और बुद्धि से ये सभी कार्य करता है। उसे इनमें आसक्ति नहीं होती है, परंतु लोकसंग्रह के लिए अर्थात् अन्य लोगों के समक्ष प्रोत्साहित करने वाला उदाहरण प्रस्तुत करते हुए पूरी एकाग्रता से कार्य करता है। इस प्रकार संयत मन और एकाग्र बुद्धि से कार्य करते हुए सहज सफलता प्राप्त करता है। उसके लिए कर्म सहज होते हैं, न कि फलासक्ति का पाश!
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