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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 67
आईएसबीएन :00000000

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उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजा:।।24।।


इसलिये यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरता का करनेवाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करनेवाला बनूँ।।24।।

भगवान् कहते हैं कि प्रकृति, सृष्टि और इस जगत् को यथावत् चलाने के लिए यदि मैं अपने कर्म न करूँ और सारे नियम यथावत न चलें तो मनुष्यों का जीवन नष्ट हो जायेगा। वे अपने सही मार्ग से भ्रष्ट हो जायेंगे। भगवान् कहते हैं कि संकरता की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। अर्थात् ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जायेंगी जैसी कि बिना मेल की वस्तुओं को आपस में मिलाने के प्रयास में होती है। जैसे आम के पेड़ में बेर लगने लगें, या व्यक्ति कभी स्वास ले और कभी स्वास लेना बंद कर दे। पक्षी धरती पर रेंगने लगे और जलचर हवा में उड़ने लगें। संक्षेप में प्रकृति के नियम छिन्न-भिन्न हो जायें और जीवन अस्त-व्यस्त हो जाये। ईश्वर के कर्म हमारे लिए स्वेच्छाचारी कोई ऐसी वस्तु नहीं हैं कि चाहें वे कर्म हो या न हों हमारे जीवन पर उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। अपितु बिना उनके हमारा जीवन चल ही नहीं सकता।

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