उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
|
10 पाठकों को प्रिय 103 पाठक हैं |
नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
31
आशा लौट आई। रूठ कर विनोदिनी ने कहा - 'भई किरकिरी, इतने दिन पीहर रही, खत लिखना भी पाप था क्या?'
आशा बोली - 'और तुमने तो लिख दिया जैसे!'
विनोदिनी- 'मैं पहले क्यों लिखती, पहले तुम्हें लिखना था।'
विनोदिनी के गले से लिपट कर आशा ने अपना कसूर मान लिया। बोली - 'जानती तो हो, मैं ठीक-ठीक लिख नहीं पाती। खास कर तुम-जैसी पंडिता को लिखने में शर्म आती है।'
देखते-ही-देखते दोनों का विषाद मिट गया और प्रेम उमड़ आया। विनोदिनी ने कहा- 'आठों पहर साथ रह कर तुमने अपने पति देवता की आदत बिलकुल बिगाड़ रखी है। कोई हरदम पास न रहे, तो रहना मुश्किल।'
आशा - 'तभी तो तुम पर जिम्मेदारी सौंप गई थी। और साथ कैसे दिया जाता है, यह तुम मुझसे ज्यादा अच्छी तरह से जानती हो।'
विनोदिनी- 'दिन को तो किसी तरह से कॉलेज भेज कर निश्चिंत हो जाती थी- मगर साँझ को किसी भी तरह से छुटकारा नहीं। किताब पढ़ कर सुनाओ, और-और न जाने क्या-क्या? पूछो मत, मचलने का तो अंत नहीं।'
आशा - 'आई न काबू में! जब जी बहलाने में पटु हो, तो लोग छुट्टी क्यों दें?'
विनोदिनी - 'मगर सावधान बहन, भाई साहब कभी-कभी तो ऐसी अति कर बैठते हैं कि धोखा होने लगता है, शायद मैं जादू-मंतर जानती हूँ।'
आशा - 'जादू तुम नहीं जानतीं तो कौन जानता है! तुम्हारी विद्या जरा मुझे आ जाती, तो जी जाती मैं।'
विनोदिनी - 'क्यों, किसके बंटाधार का इरादा है! जो सज्जन घर में है, उन पर रहम करके किसी और को मोहने की कोशिश भी न करना।'
विनोदिनी को तर्जनी दिखा कर आशा बोली - 'चुप भी रह, क्या बक-बक करती है!'
काशी से लौटने के बाद पहली बार आशा को देख कर महेंद्र ने कहा - 'तुम्हारी सेहत तो पहले से अच्छी हो गई है। काफी तंदुरुस्त हो कर लौटी हो।'
आशा को बड़ी शर्म आई। उसकी सेहत अच्छी नहीं रहनी चाहिए थी- मगर उस गरीब का बस नहीं चलता।
आशा ने धीमे से पूछा - 'तुम कैसे रहे?'
पहले की बात होती तो महेंद्र कुछ तो मजाक और कुछ मन से कहता - 'मरा-मरा'। मगर अभी मजाक करते न बना - गले तक आ कर अटक गया। कहा - 'बेजा नहीं, अच्छा ही था।'
|