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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

अन्नपूर्णा ने बिहारी को बुलवाया और आँसू भर कर कहा - 'तय तो सब तुमसे हुआ था, फिर तुमने पासा क्यों पलट दिया? मैं कहे देती हूँ शादी तो तुम्हें ही करनी पड़ेगी। यह बेड़ा तुम न पार करोगे तो मुझे बड़ी शर्मिंदगी उठानी होगी। वैसे लड़की अच्छी है।'

बिहारी ने कहा - 'चाची, तुम्हारी बात मंजूर है। वह तुम्हारी भानजी है, फिर मेरे 'ना' करने की कोई बात ही नहीं। लेकिन महेंद्र...'

अन्नपूर्णा बोलीं- 'नहीं-नहीं बेटे, महेंद्र से उसका विवाह किसी भी हालत में न होगा। यकीन मानो, तुमसे विवाह हो, तभी मैं ज्यादा निश्चिंत हो सकूँगी। महेंद्र से रिश्ता हो यह मैं चाहती भी नहीं।'

बिहारी बोला - 'तुम्हीं नहीं चाहतीं तो कोई बात नहीं।'

और वह राजलक्ष्मी के पास जा कर बोला - 'माँ, चाची की भानजी से मेरी शादी पक्की हो गई। सगे-संबंधियों में तो कोई महिला है नहीं, इसलिए मैं ही खबर देने आया हूँ।'

राजलक्ष्मी- 'अच्छा! बड़ी खुशी हुई बिहारी, सुन कर। लड़की बड़ी भली है। तेरे लायक। इसे हाथ से जाने मत देना!'

बिहारी - 'हाथ से बाहर होने का सवाल ही क्या! खुद महेंद्र भैया ने लड़की पसंद करके रिश्ता पक्का किया है।'

इन झंझट से महेंद्र और भी उत्तेजित हो गया। माँ और चाची से नाराज हो कर वह मामूली-से हॉस्टल में जा कर रहने लगा।

राजलक्ष्मी रोती हुई अन्नपूर्णा के कमरे में पहुँचीं; कहा - 'मँझली बहू, लगता है, उदास हो कर महेंद्र ने घर छोड़ दिया, उसे बचाओ!'

अन्नपूर्णा बोलीं- 'दीदी, धीरज रखो, दो दिन के बाद गुस्सा उतर जाएगा।'

राजलक्ष्मी बोलीं- 'तुम उसे जानती नहीं बहन, वह जो चाहता है, न मिले तो कुछ भी कर सकता है। जैसे भी हो, अपनी बहन की लड़की से...'

अन्नपूर्णा- 'भला यह कैसे होगा दीदी, बिहारी से बात लगभग पक्की हो चुकी।'

राजलक्ष्मी बोली - 'हो चुकी, तो टूटने में देर कितनी लगती है?'

और उन्होंने बिहारी को बुलवाया। कहा - 'तुम्हारे लिए मैं दूसरी लड़की ढूँढ़ देती हूँ- मगर इससे तुम्हें बाज आना पड़ेगा।'

बिहारी बोला - 'नहीं माँ, यह नहीं होगा। सब तय हो चुका है।'

राजलक्ष्मी फिर अन्नपूर्णा के पास गईं। बोलीं- 'मेरे सिर की कसम मँझली, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ... तुम्हीं बिहारी से कहो! तुम कहोगी तो बिगड़ी बन जाएगी।'

आखिर अन्नपूर्णा ने बिहारी से कहा - 'बेटा, तुमसे कुछ कहने का मुँह नहीं है, मगर लाचारी है क्या करूँ। आशा को तुम्हें सौंप कर ही मैं निश्चिंत होती, मगर क्या बताऊँ, सब तो तुम्हें पता है ही।'

बिहारी - 'समझ गया। तुम जो हुक्म करोगी, वही होगा। लेकिन फिर कभी किसी से विवाह करने का मुझसे आग्रह मत करना!'

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