उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
विनोदिनी बोली - 'माफी किस बात की? ठीक किया है। मैं क्या किसी से डरती हूँ? मैं किसी को नहीं मानती! जो मुझे धक्का दे कर गिरा जाते हैं, वही क्या अपने सब हैं और जो पैर पकड़ कर खींचते हुए रोक रखना चाहते हैं, वे कोई नहीं?'
महेंद्र उन्मत्त-सा गदगद स्वर में बोला - 'विनोदिनी! तो मेरे प्रेम को तुम पैरों से ठुकराओगी नहीं?'
विनोदिनी ने कहा - 'सिर-आँखों रखूँगी। जिन्दगी में मुझे इतना ज्यादा तो नहीं मिला कि मैं 'नहीं चाहिए' कह कर लौटा दूँ।'
महेंद्र ने फिर तो दोनों हाथों से उसके दोनों हाथ थाम कर कहा - 'तो फिर मेरे कमरे में चलो! आज मैंने तुम्हारा दिल दुखाया है - तुम भी मुझे चोट पहुँचा कर चली आई हो, यह मलाल जब तक मिट नहीं जाता, मुझे न खाने में चैन है, न सोने में।'
विनोदिनी बोली - 'आज नहीं। आज छोड़ दो मुझे। अगर मैंने तकलीफ पहुँचाई हो तो माफ करना!'
महेंद्र बोला - 'तुम भी माफ कर दो मुझे, वरना रात मैं सो नहीं सकूँगा।'
विनोदिनी बोली - 'मैंने माफ कर दिया।'
उसी दम विनोदिनी से प्यार और क्षमा का निदर्शन पाने के लिए महेंद्र व्यग्र हो उठा।
लेकिन उसके मुँह की ओर नजर पड़ते ही वह ठिठक गया। विनोदिनी नीचे उतर गई और वह भी छत पर टहलने लगा।
आज अचानक बिहारी के सामने उसकी चोरी पकड़ी गई, इससे उसके मन में मुक्ति की एक खुशी आई। चोरी-चुपके में एक घिनौनापन है, वह घिनौनापन मानो एक आदमी के पास प्रकट होने से बहुत हद तक जाता रहा। मन-ही-मन वह बोला - 'खुद को भला बता कर मैं अब यह झूठ नहीं चलाना चाहता- लेकिन मैं प्यार करता हूँ, प्यार करता हूँ - यह बात झूठी नहीं है।' अपने प्रेम के गर्व से उसकी अकड़ इतनी बढ़ गई कि खुद को बुरा मानकर वह अकड़ में गर्व का अनुभव करने लगा। साँझ के सन्ना टे में मौन ज्योभतिरिंगनों से भरे अनन्तन संसार के प्रति एक अवज्ञा का भाव दिखाते हुए वह सोचने लगा - 'कोई चाहे मुझे कितना ही बुरा क्योंे न कहे, लेकिन मैं प्याईर करता हूँ।' और विनोदिनी की मानस-मूर्ति ने सारे संसार, समूचे आकाश और और अपने सभी कर्तव्यों को छाप लिया। मानो बिहारी ने अचानक आकर आज उसके जीवन की स्यािही-भरी सीलबन्दच दावात उलटकर तोड़ दी - विनोदिनी की काली आँख और काले बालों ने देखते-ही-देखते फैलकर उसके पहले की सब लिखावट लीप-पोतकर बराबर कर दी।
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