उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
महेंद्र ने कहा - 'हिसाब कड़ा तो उसे कहते हैं जब वसूला जा सके। यदि वसूल ही न पाओ तो हिसाब तो रखना अपने पास?'
विनोदिनी ने कहा - 'वसूल करने योग्य है भी क्या! मगर कैद तो कर ही रखा है।'
और मजाक को एकाएक गंभीर बनाते हुए उसने एक लंबी साँस छोड़ी।
महेंद्र ने भी गंभीर हो कर कहा - 'तो यह कैदखाना है, क्यों?'
ऐसे में रोज की तरह बैरा तिपाई पर बत्ती रख गया।
अचानक आँख पर रोशनी पड़ी, तो हाथ की ओट करके नजर झुकाए विनोदिनी ने कहा - 'क्या पता भई, बातों में तुमसे कौन जीते? मैं चली।'
महेंद्र ने अचानक कस कर उसका हाथ पकड़ लिया। कहा-'बंधन जब मान ही लिया, तो फिर जाओगी कहाँ?'
विनोदिनी बोली - 'छि: छोड़ो! जिसके भागने का कोई रास्ता नहीं, उसे बाँधने की कोशिश कैसी!'
जबरदस्ती हाथ छुड़ा कर विनोदिनी चली गई। महेंद्र सुगंधित तकिए पर सिर रखे बिछावन पर पड़ा रहा। उसके कलेजे में खलबली मच गई। सूनी साँझ, सूना कमरा, नव वसंत की बयार - विनोदिनी का मन मानो पकड़ में आया-आया; लगा महेंद्र अब अपने को संयमित नहीं कर पाएगा। जल्दी से उसने बत्ती बुझा दी, दरवाजा बंद कर लिया और समय से पहले ही बिस्तर पर सो गया।
बिछावन भी तो यह पिछले वाला नहीं। चार-पाँच गद्दे पड़े थे। काफी नर्म। एक खुशबू यहाँ भी। अगरु की, खस की या काहे की थी, ठीक-ठीक समझ में नहीं आया। महेंद्र बार-बार इस-उस करवट लेटने लगा - मानो कोई भी पुरानी एक निशानी मिले कि उसे जकड़ ले। मगर कुछ भी हाथ न आया।
रात के नौ बजे दरवाजे पर दस्तक पड़ी। बाहर से विनोदिनी ने कहा - 'भाई साहब, आपका भोजन! दरवाजा खोलिए!'
महेंद्र जल्दी से उठा और दरवाजा खोलने के लिए कुंडी पर हाथ लगाया। लेकिन दरवाजे को खोला नहीं, फर्श पर पट पड़ गया। बोला - 'नहीं, मुझे भूख नहीं है।'
बाहर से घबराहट-भरी आवाज - 'तबीयत तो खराब नहीं है? पानी ला दूँ? और कुछ चाहिए?'
महेंद्र ने कहा - 'नहीं, मुझे नहीं चाहिए।'
विनोदिनी बोली-'आपको हमारी कसम। क्या हुआ बताओ! अच्छा चलो तबीयत खराब है तो कुंडी तो खोलो।'
महेंद्र ने जोर से कहा - 'उँहूँ! नहीं खोलूँगा। तुम जाओ।'
महेंद्र फिर जा कर अपने बिस्तर पर लेट गया और आशा की स्मृति को सूनी सेज पर टटोलने लगा।
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