उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
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विनोदिनी ने सोचा, 'आखिर माजरा क्या है? मान या गुस्सा या डर, पता नहीं क्या? मुझे यह दिखाना चाहते हैं कि वह मेरी परवाह नहीं करते? बाहर जा कर रहेंगे? अच्छा, यही देखना है, कितने दिन?'
लेकिन खुद उसके मन में भी बेचैनी लगने लगी।
वह रोज ही उस पर नया फंदा फेंका करती, तरह-तरह के तीरों से वेधा करती थी। उस काम के चुक जाने से वह छटपटाने लगी। घर का नशा ही उतर गया। महेंद्र-विहीना आशा उसके लिए बिलकुल स्वाद-रहित थी। आशा को महेंद्र जितना प्यार करता था, वह विनोदिनी के प्यार के भूखे हृदय को मथा करता था। जिस महेंद्र ने उसके जीवन की सार्थकता को चौपट कर दिया, जिसने उस जैसी नारी की उपेक्षा करके आशा - जैसी मंदबुद्धि बालिका को अपनाया - उस महेंद्र को विनोदिनी चाहती है या उससे चिढ़ती है, उसे इसकी सजा देगी या अपने हृदय में एक आग लहकाई है, वह आग ईर्ष्या की है या प्रेम की या दोनों की मिलावट है, यह वह सोच न पाती। वह मन-ही-मन तीखी हँसी हँस कर कहती - 'मुझ-जैसी गत किसी भी स्त्री की नहीं हुई होगी। मैं यही नहीं समझ सकी कि मैं मारना चाहती हूँ कि मरना।' लेकिन चाहे जिस वजह से भी हो, जलने के लिए या जलाने के लिए, महेंद्र की उसे नितांत आवश्यकता थी। गहरा नि:श्वास छोड़ती हुई विनोदिनी बोली- 'बच्चू जाएगा कहाँ? उसे आना पड़ेगा। वह मेरा है।'
घर की सफाई के बहाने शाम को आशा महेंद्र के कमरे में उसकी किताबें, उसकी तस्वीर आदि सामानों को छू-छा रही थी, अपने अँचरे से उन्हें झाड़-पोंछ रही थी। महेंद्र की चीजों को बार-बार छू कर, कभी उठा कर कभी रख कर अपने बिछोह की साँझ बिता रही थी। विनोदिनी धीरे-धीरे उसके पास आ कर खड़ी हो गई। आशा शर्मा गई। छूना तो उसने छोड़ दिया और कुछ ऐसा जताया मानो वह कुछ खोज रही है। विनोदिनी ने हँस कर पूछा - 'क्या हो रहा है, बहन?'
होठों पर हल्की हँसी ला कर बोली - 'कुछ भी नहीं।'
विनोदिनी ने उसे गले लगाया। पूछा - 'भई आँख की किरकिरी, देवर जी इस तरह घर से चले क्यों गए?'
विनोदिनी के इस सवाल से ही आशा शंकित हो उठी। कहा - 'तुम्हें तो मालूम है। जानती ही हो, काम का दबाव रहता है।
दाहिने हाथ से उसकी ठुड्डी उठा कर, मानो करुणा से गल गई हो इस तरह सन्न हो कर उसने आशा को देखा और लंबी साँस ली।
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