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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

उसने फूल-समेत फूलदानी उठा कर बाहर फेंक दी। ठन-ठन बजती वह सीढ़ी पर लुढ़कती जा पड़ी। 'आशा मेरे मन के लायक क्यों नहीं रहती, क्यों वह मेरे मन-मुताबिक काम नहीं करती?'

महेंद्र बाहर निकला। जा कर फूलदानी उठा लाया। कोने में एक मेज पड़ी सीढ़ी पर बैठ कर उसी टेबल पर कोहनी टिकाए हाथों पर सिर रखे सोया रहा।

अँधेरा होने पर कमरे में बत्ती आई, लेकिन आशा नहीं। महेंद्र छत पर जोर-जोर से चहल-कदमी करने लगा। रात के नौ बजे, महेंद्र के सूने कमरे में आधी रात का सन्नाटा छा गया - आशा फिर भी न आई। महेंद्र ने बुलावा भेजा। सकुचाई-सी आ कर वह छत पर दरवाजे के पास ठिठक गई। महेंद्र पास गया - उसे छाती से लगा लिया। पति के कलेजे से लग कर वह जोरों से रो पड़ी - अपने को जब्त न कर सकी, आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। कलेजे से लगा कर महेंद्र ने उसके बालों को चूमा - मौन आसमान के सितारे चुपचाप देखते रहे।

रात को महेंद्र ने बिस्तर पर बैठ कर बताया - 'कॉलेज में मेरी रात की डयूटी लगी है, कुछ दिनों के लिए मुझे कॉलेज के ही आस-पास कहीं डेरा लेना पड़ेगा।'

आशा सोचने लगी - 'गुस्सा शायद रह ही गया है? मुझ पर नाराज हो कर तो नहीं जा रहे? आखिर निगुनी मैं। पति को घर से रुखसत करके ही रही! मेरा तो मर जाना ही अच्छा था।'

लेकिन महेंद्र के हाव-भाव में गुस्से का कोई लक्षण न दीखा। बड़ी देर तक वह चुप रहा। आशा के मुखड़े को कलेजे से लगा कर उँगली से बालों को चीरते-चीरते उसके जूड़े को ढीला कर दिया। पहले प्यार से महेंद्र इसी तरह आशा का जूड़ा खोल दिया करता था - आशा इस पर एतराज करती थी। आज मगर उसने चूँ भी न की। अचानक उसके कपाल पर आँसू की एक बूँद टपक पड़ी। महेंद्र ने उसका मुँह अपनी ओर फेर कर स्नेह से रुँधे स्वर में पुकारा - 'चुन्नी!'

आशा को कोई जवाब न मिला। अपने कोमल हाथों से उसने कस कर महेंद्र को दबा लिया। महेंद्र ने कहा - 'मुझसे गलती हो गई, माफ कर दो।'

अपने फूल-से सुकुमार हाथ से महेंद्र के होंठों को दबाती हुई वह बोली - 'छि:, ऐसा न कहो! तुमने कोई कसूर नहीं किया। कसूर मेरा है। मुझे दासी के समान फटकारो। मुझे अपने पाँवों में रहने लायक बना लो!'

जिस दिन जाना था, सुबह जगते समय महेंद्र ने कहा - 'चुन्नी, मेरी रतन, तुम्हें मैं अपने हृदय में सबसे ऊपर रखूँगा। कोई तुमसे आगे नहीं जा सकेगा।'

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