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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

15

बाहर से हिला-डुला दो तो दबी राख में आग फिर से लहक उठती है। आशा और महेंद्र की मुहब्बत का उछाह मंद पड़ता जा रहा था, वह तीसरी तरफ की ठोकर से फिर जाग पड़ा।

आशा में हँसी-दिल्लगी की ताकत न थी, पर आशा उससे थकती न थी, लिहाज़ा विनोदिनी की आड़ में आशा को बहुत बड़ा आश्रय मिल गया। महेंद्र को हमेशा आनंद की उमंग में रखने के लिए उसे लोहे के चने नहीं चबाने पड़ते थे।

विवाह होने के बाद कुछ ही दिनों में आशा और महेंद्र एक-दूसरे के लिए अपने को उजाड़ने पर आमादा थे - प्रेम का संगीत शुरू ही पंचम के निषाद से हुआ था, सूद के बजाय पूँजी ही भुना खाने पर तुले थे।

अब उसकी अपनी कोशिश न रह गई। महेंद्र और विनोदिनी जब हँसी-मज़ाक करते होते, वह बस जी खोल कर हँसने में साथ देती। पत्ते खेलने में महेंद्र आशा को बेतरह चकमा देता, तो आशा विनोदिनी से फैसले के लिए गिड़गिड़ाती हुई शिकायत करती। महेंद्र कोई मज़ाक कर बैठता या गैरवाजिब कुछ कहता तो आशा को यह उम्मीद होती कि उसकी तरफ से विनोदिनी उपयुक्त जवाब दे देगी। इस प्रकार इन तीनों की मंडली जम गई।

मगर इससे विनोदिनी के काम-धंधों में किसी तरह की ढिलाई न आ पाई। रसोई, गृहस्थी के दूसरे काम-काज, राजलक्ष्मी की सेवा-जतन- सारा कुछ खत्म करके ही वह इस आनंद में शामिल होती। महेंद्र आज़िजी से कहता - 'नौकर-महरी को काम नहीं करने देती हो, चौपट करोगी उन्हें तुम।'

विनोदिनी कहती- 'काम न करके खुद चौपट होने से यह बेहतर है। तुम अपने कॉलेज जाओ!'

महेंद्र - 'ऐसी बदली के दिन?'

विनोदिनी - 'न यह नहीं होने का... गाड़ी तैयार है, जाना पड़ेगा।'

महेंद्र - 'मैंने तो गाड़ी को मना कर दिया था।'

विनोदिनी ने कहा 'मैंने कह रखा था।' कह कर महेंद्र की पोशाक ला कर हाज़िर कर दी।

महेंद्र - 'तुम्हें राजपूत के घर पैदा होना चाहिए था, लड़ाई के समय अपने आत्मीय को कवच पहनाती।'

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