उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
आशा मुश्किल में पड़ी। विनोदिनी ने कुछ भी नहीं कहा। इससे आशा अपनी सखी से नाराज हुई थी। बोली - 'ठहरो भी, दो-चार दिन मिल-जुल कर तो कहेगी। कल भेंट भी कितनी देर को हुई और बातें भी कितनी हो सकीं।'
महेंद्र इससे भी कुछ निराश हुआ और विनोदिनी के बारे में लापरवाही दिखाना उसके लिए और भी कठिन हो गया।
इसी बीच बिहारी आ पहुँचा। पूछा - 'क्यों भैया, आज किस बात पर विवाद छिड़ा हुआ है?'
महेंद्र ने कहा - 'देखो न, तुम्हारी भाभी ने कुमुदिनी या प्रमोदिनी जाने किससे तो जाने क्या नाता जोड़ा है लेकिन मुझे भी अगर उससे वैसा ही कुछ जोड़ना पड़े तो जीना मुश्किल जानो!'
आशा के घूँघट के अंदर घोर कलह घिर आया। बिहारी जरा देर चुपचाप महेंद्र की ओर ताकता रहा और हँसता रहा। बोला - 'भाभी, बात तो यह अच्छी नहीं। यह सब भुलाने की बातें हैं। तुम्हारी आँख की किरकिरी को मैंने देखा है, और भी अगर बार-बार देख पाऊँ, तो उसे दुर्घटना न समझूँगा, यह मैं कसम खा कर कह सकता हूँ। लेकिन इतने पर भी महेंद्र जब कबूल नहीं करना चाहते तो दाल में कुछ काला है।'
महेंद्र और बिहारी में बहुत भेद है, आशा को इसका एक और सबूत मिला।
अचानक महेंद्र को फोटोग्राफी का शौक हो आया। पहले भी एक बार उसने सीखना शुरू करके छोड़ दिया था। उसने फिर से कैमरे की मरम्मत की, और तस्वीरें लेना शुरू कर दिया। घर के नौकर-चाकरों तक के फोटो लेने लगा।
आशा जिद पकड़ बैठी- 'मेरी सखी की तस्वीर लेनी पड़ेगी।'
बहुत मुख्तसर में महेंद्र ने जवाब दिया- 'अच्छा!'
और उससे भी मुख्तसर में उसकी आँख की किरकिरी ने कहा - 'नहीं।' आशा को इसके लिए फिर एक तरकीब खोजनी पड़ी।
तरकीब यह थी कि आशा किसी तरह उसे अपने कमरे में बुलाएगी और सोते समय ही उसकी तस्वीर को ले कर महेंद्र एक खासा सबक देगा।
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