उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
|
10 पाठकों को प्रिय 103 पाठक हैं |
नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
ज्यों ही विनोदिनी कमरे में आई, राजलक्ष्मी बोल उठीं - 'राम-राम, तुमने यह किया क्या बहू, दिन-भर बे-खाए-पिए बैठी हो। जाओ, पहले खा लो, फिर बातचीत होगी।'
विनोदिनी ने उनके चरणों की धूल ली। बोली - 'पहले इस पापिन को तुम माफ करो बुआ, तभी मैं खाऊँगी।'
राजलक्ष्मी - 'माफ कर दिया बिटिया, माफ कर दिया - अब मुझे किसी से भी कोई मलाल नहीं।'
विनोदिनी का दाहिना हाथ पकड़ कर उन्होंने कहा -'बहू, तुमसे जीवन में किसी का बुरा न हो और तुम भी सुखी रहो!'
विनोदिनी - 'तुम्हारा आशीर्वाद झूठा न होगा बुआ, मैं तुम्हारे पाँव छू कर कहती हूँ, मुझसे इस घर का बुरा न होगा।'
झुक कर अन्नपूर्णा को प्रणाम करके विनोदिनी खाने गई। लौटने पर राजलक्ष्मी ने पूछा - 'तो अब तुम चलीं?'
विनोदिनी - 'मैं तुम्हारी सेवा करूँगी, बुआ। ईश्वर साक्षी है, मुझसे किसी बुराई की शंका न करो।'
राजलक्ष्मी ने बिहारी की तरफ देखा। बिहारी ने कुछ सोचा। फिर कहा - 'भाभी रहें, कोई हर्ज नहीं।'
रात में बिहारी, अन्नपूर्णा और विनोदिनी - तीनों ने मिल कर राजलक्ष्मी की सेवा की।
इधर रात को आशा राजलक्ष्मी के पास नहीं आई, इस शर्म से वह तड़के ही उठी। महेंद्र को सोता ही छोड़ कर उसने जल्दी से मुँह धोया, कपड़े बदले और तैयार होते ही आई। तब भी धुँधलका था। दरवाजे पर आ कर उसने जो कुछ देखा, वह अवाक् रह गई। स्वप्न तो नहीं!
स्पिरिट-लैंप जला कर विनोदिनी पानी गरम कर रही थी। रात को बिहारी ने पलकें भी न झपकाई थीं। उनके लिए चाय बनानी थी।
आशा को देख कर विनोदिनी खड़ी हो गई। बोली - 'सारे अपराधों के साथ मैंने आज तुम्हारी शरण ली है - और कोई तो जाने की न कह सकेगा, मगर तुम अगर कह दो, 'जाओ', तो मुझे तुरंत जाना पड़ेगा।'
आशा कोई जवाब न दे सकी। वह यह भी ठीक-ठीक न समझ सकी कि उसका मन क्या कह रहा है - इसलिए वह हक्की-बक्की हो गई।
विनोदिनी - 'मुझे तुम कभी माफ नहीं कर पाओगी - इसकी कोशिश भी मत करना। मगर मुझे अब कोई खतरा मत समझना। जिन कुछ दिनों के लिए बुआ को जरूरत है, मुझे इनकी सेवा करने दो, फिर मैं चली जाऊँगी।'
|