उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
|
10 पाठकों को प्रिय 103 पाठक हैं |
नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
महेंद्र - 'क्यों न कर ली खुदकुशी? उस विश्वास की फाँस मेरे गले में डाल कर मुझे देश-देशांतर में घसीट कर क्यों मार रही हो? सोच देखो, तुम मर जाती तो कितना कल्याण होता!'
विनोदिनी - 'जानती हूँ, मगर जब तक बिहारी की उम्मीद है, मर न पाऊँगी।'
महेंद्र - 'जब तक तुम नहीं मरतीं, तब तक मेरी आशा भी नहीं मरने की, मैं भी छुटकारा नहीं पाने का। आज से मैं हृदय से भगवान से तुम्हारी मृत्यु की कामना करता हूँ। तुम मेरी भी न बनो, बिहारी की भी नहीं! जाओ, मुझे मुक्ति दो। मेरी माँ रो रही है, स्त्री रो रही है, उनके आँसू दूर से ही मुझे जला रहे हैं। जब तक तुम मर नहीं जातीं; मेरी और दुनिया-भर की आशा से परे नहीं हो जातीं, तब तक मुझे उनके आँसू पोंछने का अवसर नहीं मिलेगा।'
इतना कह कर महेंद्र बड़ी तेजी से बाहर निकल गया। अकेली पड़ी विनोदिनी अपने चारों तरफ माया का जाल बुन रही थी, उसे वह फाड़ गया। विनोदिनी खड़ी-खड़ी चुपचाप बाहर देखती रही - आकाश-भरी चाँदनी को खाली करके उसका सारा संचित अमृत कहीं चला गया? वह क्यारियों वाला बगीचा, उसके बाद रेती-भरा किनारा, उसके बाद नदी का काला-काला पानी, उसके बाद सारा पार का धुँधलापन - सब मानो एक सादे कागज पर पेंसिल का बना चित्र हो - नीरस, बेमानी।
उसने महेंद्र को किस बुरी तरह अपनी ओर खींचा है खौफनाक तूफान की तरह कैसे उसे जड़ समेत उखाड़ लिया है- यह अनुभव करके आज उसका हृदय मानो और भी बेचैन हो गया। उसमें यह सारी शक्ति तो है, फिर भी बिहारी पूर्णिमा की रात में उमड़े हुए समुद्र की तरह उसके सामने आ कर पछाड़ क्यों नहीं खाता? क्यों बे-मतलब प्यार की कचोट रोज उसके ध्यान में आ कर रोती है?
उसे लगा सब बेकार और निरर्थक है। इतनी व्यर्थता के बावजूद जो जहाँ है, वहीं खड़ा है - दुनिया में किसी बात का कोई कार्यक्रम नहीं। सूरज तो कल भी उगेगा और दुनिया अपने छोटे-से काम को भी न भूलेगी। और बिहारी जैसे दूर रहा है, वैसे ही दूर रहेगा और उस ब्राह्मण के बच्चे को किताब का नया पाठ पढ़ाता रहेगा।
उसकी आँखों से आँसू फूट कर झरने लगे। अपनी इच्छा और शक्ति लिए वह किस पत्थर को ढकेल रही है? उसका हृदय लहू से नहा उठा, लेकिन उसकी तकदीर सुई की नोक के बराबर भी न खिसकी।
|