उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
राजलक्ष्मी ने कहा - 'नहीं बहन, नवीन डॉक्टर के करने से कुछ न होगा।'
अन्नपूर्णा बोलीं-'तो फिर किसे बुलवाना चाहती हो तुम?'
राजलक्ष्मी ने कहा - 'एक बार बिहारी को बुलवा सको, तो अच्छा हो।'
अन्नपूर्णा के दिल में चोट लगी। उस दिन काशी में उन्होंने बिहारी को दरवाजे पर से ही अँधेरे में अपमानित करके लौटा दिया था। वह तकलीफ वे आज भी न भुला सकी थीं। बिहारी अब शायद ही आए। उन्हें यह उम्मीद न थी कि इस जीवन में उन्हें अपने किए का प्रायश्चित करने का कभी मौका मिलेगा।
अन्नपूर्णा एक बार छत पर महेंद्र के कमरे में गई। घर-भर में यही कमरा आनंद-निकेतन था। आज उस कमरे में कोई श्री नहीं रह गई थी - बिछौने बेतरतीब पड़े थे। साज-सामान बिखरे हुए थे, छत के गमलों में कोई पानी नहीं डालता था, पौधे सूख गए थे।
आशा ने देखा, मौसी छत पर गई हैं। वह भी धीरे-धीरे उनके पीछे-पीछे गई। अन्नपूर्णा ने उसे खींच कर छाती से लगाया और उसका माथा चूमा। आशा ने झुक कर दोनों हाथों से उनके पाँव पकड़ लिए। बार-बार उनके पाँवों से अपना माथा लगाया। बोली - 'मौसी, मुझे आशीर्वाद दो, बल दो। आदमी इतना कष्ट भी सह सकता है, मैंने यह कभी सोचा तक न था। मौसी, इस तरह कब तक चलेगा?'
अन्नपूर्णा वहीं जमीन पर बैठ गईं। आशा उनके पैरों पर सिर रख कर लोट गई। अन्नपूर्णा ने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और चुपचाप देवता को याद करने लगीं।
जमाने के बाद अन्नपूर्णा के स्नेह-सने मौन आशीर्वाद ने आशा के मन में बैठ कर शांति का संचार किया। उसे लगा, उसकी मनोकामना पूरी हो गई है। देवता उस-जैसी नादान की उपेक्षा कर सकते हैं, मगर मौसी की प्रार्थना नहीं ठुकरा सकते।
मन में दिलासा और बल पा कर आशा बड़ी देर के बाद एक लंबा नि:श्वास छोड़ कर उठ बैठी। बोली - 'मौसी, बिहारी भाई साहब को आने के लिए चिट्ठी लिख दो!'
अन्नपूर्णा बोलीं - 'उँहूँ, चिट्ठी नहीं लिखूँगी।'
आशा - 'तो उन्हें खबर कैसे होगी?'
अन्नपूर्णा बोलीं - 'मैं कल खुद उससे मिलने जाऊँगी।'
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