उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
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दूसरे दिन तड़के ही महेंद्र बिहारी के यहाँ पहुँच गया। देखा, दरवाजे पर कई बैलगाड़ियों पर नौकर-चाकर सामान लाद रहे हैं। महेंद्र ने भज्जो से पूछा - 'माजरा क्या है?' भज्जो ने कहा - 'बाबू ने बाली में गंगा के किनारे एक बगीचा लिया है। यह सब वहीं जा रहा है।' महेंद्र ने पूछा - 'बाबू घर पर हैं क्या?'
भज्जो ने कहा - 'वे सिर्फ दो दिन कलकत्ता रुक कर कल बगीचे चले गए।'
सुनते ही महेंद्र का मन आशंका से भर गया। उसकी गैरहाजिरी में बिहारी से विनोदिनी की भेंट हुई है, इस पर उसे कोई संदेह न रहा। उसने कल्पना की आँखों से देखा, विनोदिनी के डेरे के बाहर भी बैलगाड़ियाँ लद रही हैं। उसे यह निश्चित-सा लगा कि इसलिए मुझ नासमझ को विनोदिनी ने डेरे से दूर ही रखा है।
पल की भी देर न करके महेंद्र गाड़ी पर सवार हुआ और कोचवान से हाँकने को कहा। बीच-बीच में कोचवान को इसके लिए गालियाँ सुनाईं कि घोड़े तेज नहीं चल रहे हैं। गली के अंदर डेरे के दरवाजे पर पहुँच कर देखा, यात्रा की कोई तैयारी नहीं है। डर लगा, वहीं यह काम पहले ही न हो चुका हो। तेजी से किवाड़ के कड़े खटखटाए। अंदर से जैसे ही बूढ़े नौकर ने दरवाज़ा खोला, महेंद्र ने पूछा - 'सब ठीक तो है?'
उसने कहा - 'जी हाँ, ठीक ही है।'
ऊपर जा कर महेंद्र ने देखा, विनोदिनी नहाने गई है। उसके सूने सोने के कमरे में जा कर महेंद्र विनोदिनी के रात के बिस्तर पर लोट गया, दोनों हाथों से खींच कर चादर को छाती के पास ले आया और पहुँच कर उस पर मुँह रखते हुए बोला - 'बेरहम, निर्दयी!'
हृदय के उच्छ्वास को इस तरह निकल कर वह सेज से उठ कर विनोदिनी का इंतजार करने लगा। कमरे में चहलकदमी करते हुए देखा, फर्श के बिछौने पर एक अखबार खुला पड़ा है। समय काटने के खयाल से कुछ अनमना-सा हो कर अखबार उठा कर देखा। जहाँ पर उसकी नजर पड़ी, वहीं पर बिहारी का नाम था। उसका मन बात-की-बात में अखबार देखते-देखते वहीं पर टूट पड़ा। किसी ने संपादक के नाम पत्र लिखा था, 'मामूली तनखा पाने वाले गरीब किरानियों के बीमार होने पर नि:शुल्क चिकित्सा और सेवा के लिए बिहारी ने बाली में एक बगीचा खरीदा है, वहाँ एक साथ पाँच आदमियों के लिए प्रबंध हो चुका है, आदि-आदि।'
यह खबर विनोदिनी ने पढ़ी, पढ़ कर उसके मन में क्या हुआ होगा! बेशक उसका मन उधर ही भाग-भाग कर रहा होगा। न केवल इसीलिए बल्कि महेंद्र का जी इस वजह से और भी छटपटाने लगा कि बिहारी के इस संकल्प से उसके प्रति विनोदिनी की भक्ति और भी बढ़ जाएगी। बिहारी को महेंद्र ने अपने मन में 'हम्बग' और उसके इस काम को 'सनक' कहा।
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