उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
बिहारी ने कहा - 'तुम जो पूछ रहे हो, एक वाक्य में जवाब नहीं दिया जा सकता। उसके लिए जरा बैठना पड़ेगा।'
महेंद्र ने कहा - 'उपदेश दोगे? वे सारे उपदेश मैं बचपन में ही पढ़ चुका हूँ।'
बिहारी - 'नहीं। उपदेश देने का न तो मुझे अधिकार है, न क्षमता।'
महेंद्र - 'तो धिक्कारोगे? मुझे पता है, मैं पापी हूँ, और तुम जो कहोगे, वह सब हूँ मैं। लेकिन सिर्फ इतना पूछना चाहता हूँ, विनोदिनी कहाँ है?'
बिहारी - 'मालूम है।'
महेंद्र - 'मुझे बताओगे या नहीं?'
बिहारी - 'नहीं बताऊँगा।'
महेंद्र - 'तुम्हें बताना ही पड़ेगा। तुम उसे चुरा लाए हो और छिपा कर रखे हुए हो। वह मेरी है। मुझे लौटा दो।'
बिहारी कुछ क्षण ठगा-सा रहा। फिर दृढ़ता से बोला -'वह तुम्हारी नहीं है। मैं उसे चुरा कर भी नहीं लाया - वह खुद-ब-खुद मेरे पास आई है।'
महेंद्र चीख उठा- 'सरासर झूठ!'
और महेंद्र ने बगल के कमरे के दरवाजे पर धक्का देते हुए आवाज दी - 'विनोद! विनोद!'
अंदर से रोने की आवाज सुनाई पड़ी। बोला - 'कोई डर नहीं विनोद, मैं महेंद्र हूँ - मैं तुम्हें कोई कैद करके नहीं रख सकता।'
महेंद्र ने जोर से धक्का दिया कि किवाड़ खुल गया। दौड़ कर अंदर गया। कमरे में अँधेरा था। धुँधली छाया-सी उसे लगी। न जाने वह किस डर के मारे काठ हो कर तकिए से लिपट गया। जल्दी से बिहारी कमरे में आया। बिस्तर से बसंत को गोद में उठा कर दिलासा देता हुआ बोला - 'डर मत बसंत, मत डर।'
महेंद्र लपक कर वहाँ से निकला। घर के एक-एक कमरे की खाक छान डाली। उधर से लौट कर देखा, अब भी बसन्त डर से रह-रह कर रो उठता था। बिहारी ने उसके कमरे की रोशनी जलाई। उसे बिछौने पर सुला कर बदन सहलाते हुए उसे सुलाने की चेष्टा करने लगा।
महेंद्र ने आ कर पूछा - 'विनोदिनी को तुमने कहाँ रखा है?'
बिहारी ने कहा - 'महेंद्र भैया, शोर न मचाओ। नाहक ही तुमने इस बच्चे को इतना डरा दिया कि यह बीमार हो जाएगा। मैं कहता हूँ, विनोदिनी के बारे में जानने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं।'
महेंद्र बोला - 'महात्मा जी, धर्म का आदर्श न बनो। मेरी स्त्री की तस्वीर अपनी गोद में रख कर इस रात को किस देवता के ध्यान में किस पुण्य मंत्र का जाप कर रहे थे? पाखंडी!'
कह कर महेंद्र ने तस्वीर को जूते से रौंद कर चूर-चूर कर डाला और फोटो के टुकड़े-टुकड़े करके बिहारी पर फेंक दिया। उसका पागलपन देख कर बसन्त फिर रो पड़ा। गला रुँध आया बिहारी का। अंगुली से दरवाजे का इशारा करते हुए वह बोला - 'जाओ!'
महेंद्र आँधी की तरह वहाँ से निकल गया।
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