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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2100
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

9


यद्यपि लाबू हमेशा से बुद्धू ही है।

और इसीलिए वह हर हाल में सुखी रह सकती है। अब वह अपने को सुखी समझती है। उसके लिए वैधव्य अतीत का एक ऐसा अध्याय था कि उसके लिए भयानक शून्यताबोध हुआ ही नहीं।

यहाँ तक कि जब लाबू के पति की असमय में मृत्यु हुई उस समय अपने दुःख से ज्यादा अपने बूढ़े सास-ससुर के दुःख से आहत हुई थी। उनके पुत्रशोक के हाहाकार ने लाबू का हृदय छलनी कर दिया था। अपने दुःख को तुच्छ कर उसने वृद्ध दम्पती के आँसू पोंछे, उन्हें हृदय से लगा लिया। उनकी सेवा की। पुत्रशोक भुलाने के लिए अपना नन्हा शिशु उनकी गोद में डाल दिया था। लाबू से उनका दुःख देखा नहीं जाता था। वही सास-ससर न रहे तो लाबू असहाय हो गयी थी।

पुत्र की नौकरी लग जाने से वह अपनी अनेकों अपूर्ण इच्छाएँ पूर्ण कर रही है। गृहस्थी सँभल जाने से वह अब सुखी है।

साधारण नौकरी या साधारण तनख्वाह है तो क्या हुआ? लाबू ही की इच्छाएँ कहाँ असाधारण हैं?

लाबू चाहती थी चौके की छत पक्की कर ले और एडवेस्टर शीट हटवा दे। ट्यूबवेल के आस-पास ज़रा ऊँचा पक्का चबूतरा बना ले। यह उसकी वर्षों की इच्छा थी। पानी भरते समय हर बार पाँव में कीचड लग जाता है। चौके में रखी जालीदार लोहे की अलमारी की जाली बदलवाकर अलमारी को रँगवा लेने की इच्छा भी कोई बहुत बड़ी इच्छा नहीं। बहुत दिनों से जी में आ रहा था दुनिया भर के पुराने गद्दे-रजाइयाँ खुलवाकर उनसे बेटे के लिए एक सेट नया गद्दा, नयी रजाई बनवा ले।

तथा भारी-भारी काँसे के बर्तनों की जगह पर अब हल्के नये सुन्दर स्टील के बर्तनों में बेटे को खाना परोस कर दे।

यह सारी इच्छाएँ धीरे-धीरे पूरी हो गयी हैं।

कुछ कामों में तो पैसा ही खर्च नहीं हुआ। एक बहुत भारी थाली के बदले में स्टील की थाली, कटोरियाँ, गिलास आराम से मिल गया।

इसी में लाबू को सुख मिला।

अरुण घर पर है तभी न लाबू यह सब कर सकी? गनीमत है कि लाबू की मूर्खता के फेर में पड़ कर अरुण कलकत्ते जाकर मामा के यहाँ रहने नहीं लगा।

दो आदमी की गृहस्थी। मेहनती और हर काम ठीक-ठाक रखनेवाली लाबू के कारण खर्चा बहुत कम था। लाबू अपने आँगन में इतनी सब्जी बो लेती कि खरीदनी ही नहीं पड़ती। ऊपर से बाँटनी पड़ जाती।

इतनी सुखी लाबू के मन के कोने में अगर एक और सुख सिर उठाने के लिए छटपटाए तो इसमें उसका क्या कुसूर? फिर भी तो लाबू उस सुख को मन के कोने में ही डाले, खुश होती रहती है। जैसा बुद्धू लोग करते हैं।

छुट्टी का दिन लाबू के लिए परम सुखदायी होता है। उसके मानो पंख लग जाते हैं। एक बार भागकर बेटे के पास आती, एक बार चौके में जाती।

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