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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2100
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

लड़के के सामने चाय-नाश्ता रखते हुए सुखी भाव से बोल उठी, “कल तुझे लौटने में इतनी रात हो गयी कि मैं बता ही नहीं पायी। एक खुशखबरी है।”

अरुण ने हँसकर पूछा, “कैसी खुशखबरी? तुम्हारी लौकी की लतर में लौकी फली है क्या?

"आहा ये क्या बहुत बड़ी खुशखबरी है?

"तुम्हारे लिए तो यही काफ़ी है।"

"बिल्कुल नहीं। खुशखबरी यह है कि मिंटू के लिए एक बहुत अच्छा रिश्ता मिल गया है। कल लड़केवाले देखने आये थे। पसन्द भी कर गये हैं। सुना है लड़का मद्रास में नौकरी करता है। बड़ी भारी कोई नौकरी है, छुट्टी कम मिलती है। कहा था उसने कि घरवाले पसन्द कर लेंगे तो वह शादी कर लेगा। आजकल के जमाने में ऐसी बात कहता कौन है? क्यों रे, तूने चाय नहीं पी?”

एक बूंट पीकर नीचे उतारकर रखी चाय पर एक नज़र डालते हुए अरुण बोला, "कुछ ज़्यादा कड़क लगी।”

“अरे ! तो दूसरी बना लाऊँ?'

"नहीं-नहीं, रहने दो।"

“वाह ! थोड़ी भी तो नहीं पी है?"

“अच्छी नहीं लग रही है। बाद में पीऊँगा। ज़रा टहल “अब इस समय टहलने कहाँ जायेगा?"

"अभी जाना ही ठीक होगाबाद में धूप तेज हो जायेगी।”।

सहसा लाबू चुप हो गयी। अरुण का यह भावान्तर उसकी निगाहों से छिपा नहीं। ऐसा क्यों हुआ? मूर्ख लाबू दिशाहीन हुई फिर भी अपने को सँभालते हुए बोली -

"ताऊजी के घर जा रहा है क्या? "ताऊजी के घर? क्यों?

“अरे वही शादी के मामले में। लड़का काम क्या करता है, यह तो मैं ठीक से समझ नहीं पायी थी।"

“इतना समझकर होगा क्या?” कहते हुए चप्पल पहनकर अरुण घर से बाहर निकल गया।

लाबू ने देखा विशेष प्रिय लाबू की टिकियाँ दोनों ही पड़ी हैं। लाबू के सिर पर जैसे एक चील ने चक्कर काटना शुरू किया।

अभी थोड़ी देर पहले लाबू अपने को कितना सुखी समझ रही थी। वह सोच रही थी लड़का आलू की टिकियों की प्रशंसा के पुल बाँध देगा (जैसा कि किया करता है) और दो टिकियाँ माँगकर खाएगा। उन्हें छेड़ने के लिए कहेगा, 'एक आध ज़्यादा है कि नहीं? तुम्हें कम तो नहीं पड़ेगा? लाबू बिगड़कर कहेगी, 'हाँ, मैं तो उसी डर के मारे मरी जा रही हूँ। कहते हुए एक आध और दे देगी ज़ोर-जबरदस्ती।'

इसके बाद लाबू खुशी-खुशी और उत्साह के साथ, उस घर के जेठ की बेटी की शादी के किस्से सुनने बैठ जातीं। बतातीं, जेठजी ने लड़की दिखायी में ही इतना सारा खर्च कर डाला है"खूब बढ़िया खाना खिलाया है। देखकर तो लाबू आश्चर्यचकित रह गयी थीं। वैसे करते भी क्यों नहीं? कोई कमी तो है नहीं। फिर ऐसे बड़े घर का रिश्ता है लड़का क्या है हीरा है हीरा। इस शादी के हो जाने से घर भर का भाग्य जाग जायेगा। पर मिंटू भी कम ज़िद्दी नहीं। सजने-धजने को तैयार ही न हो"गुस्से के मारे मुँह फुलाकर बैठ गयी। अन्त में बाप के बहुत समझाने पर तैयार हुई।

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