उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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एकाएक लगा आज अगर प्रनति जिन्दा होती ! सुनकर ज़रूर कह बैठती, "ओ माँ ! देखो ज़रा। एक लड़का ही तो है यहाँ रहेगा इसमें असुविधा का प्रश्न ही कहाँ उठता है? लाबू ननदजी ने इतना हिचकते हुए क्यों लिखा है बाबा? गाँव के लड़के कलकत्ते में रहनेवाले रिश्तेदारों के यहाँ रहकर पढ़ते हैं, कामकाज करते हैं। अरे, दूर के रिश्तेदार आकर रह जाते हैं, उसका तो यह मामा का घर है।”
फिर खुली खिड़की से आयी तेज हवा से सारा शरीर सिहर उठा। उतरा शॉल उठाकर फिर ओढ़ लिया।
थोड़ी देर बाद दीबू कमरे में आया। बड़ा बेटा दिव्यजीवन। यही तो प्रवासजीवन की आकांक्षा है। लड़के आयें, उनके कमरे में आकर बैठें। परन्तु आज उसके आते ही समझ गये कि उसका यह आना बाप के पास बैठने के लिए नहीं हुआ है। बात सच ही निकली।
दिव्य बिना किसी भूमिका के बोल उठा, “सुना लाबू बुआ का लड़का यहाँ रहना चाहता है?
प्रवासजीवन कुछ हिलडुलकर बैठे, ज़रा-सा हँसे, बोले, “लड़का नहीं चाहता है। लड़के की माँ चाहती है। ये लो न चिट्ठी पढ़कर देखो।"
“देखने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन मेरे विचार से यह उनकी माँग अन्यायपूर्ण है।"
“अन्यायपूर्ण माँग?”
“अवश्य ! आजकल के ज़माने में एक बाहरी लड़के को घर में रखना बहुत रिस्की है।"
प्रवासजीवन आहत स्वरों में बोले, “लाबू का लड़का बाहरी है?
"मैं तो ऐसा ही समझता हूँ। तुम्हारी फुफेरी बहन का लड़का।" प्रवासजीवन को समझने में कुछ समय लग गया। ओह ! लड़का प्रवासजीवन का भांजा नहीं-उनकी फुफेरी वहन का लड़का है-इन लोगों के बाप की फुफेरी वहन का लड़का।
सहसा गुस्सा आ गया। इस तरह से कहने का अर्थ क्या हुआ घर क्या इनका प्रवासजीवन की जीवनभर की कमाई से तैयार नहीं हुआ है यह घर, यह गृहस्थी, यह सारी साजसज्जा, फर्नीचर? यहाँ तक कि एक-एक कील, तक उनकी ही कमाई के पैसे से आया था। प्रनति के अथक प्रयास, जतन, स्वप्न इस मकान की हर ईंट के जोड़ों में नहीं समाये हुए हैं। क्या यहाँ प्रवासजीवन अपने एक स्नेही आत्मीय को ज़रा-सी जगह नहीं दे सकते हैं?।
सभ्यता, सौजन्यता, कर्तव्य, किसी चीज़ का ज्ञान नहीं? क्या सेण्टीमेण्ट नाम की चीज़ भी इन लोगों में नहीं है? मैं पूछता हूँ मेरे पेन्शन के रुपयों से घर का एक बड़ा खर्च नहीं पूरा होता है? हमेशा की तरह भूषण और देबू की तनख्वाह से आज भी अपने हाथ से देते हैं। हो सकता है इसीलिए आज तक वे टिके हए हैं वरना फालतू कहकर उन्हें भी कब का निकाल चुकी होती घर की वर्तमान गहिणी।
वे जानते हैं उन दोनों पर खूब सख्ती बरती जाती है।
कभी-कभार एकान्त में दो बातें करने का अवसर पा जाते हैं तो दबी जुबान में धीरे से कह ही डालते हैं, “जब तक आप हैं हम लोग तभी तक यहाँ रहेंगे, बाबूजी। उसके बाद एक दिन भी नहीं।"
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