उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
उनके अपनी तरफ़ के जो भी रिश्तेदार थे उनके बारे में प्रवासजीवन ने क्या कभी सोचा था? वरन् प्रनति की त्रुटिहीन व्यवस्था पर मोहित ही होते थे। बल्कि कभी-कभी तो वे शिकायत ही कर बैठते थे, “तुम हर बात में अति करती हो। पिंट की लड़की की शादी में इतनी महँगी साडी देने की क्या ज़रूरत थी?"
प्रनति तुरन्त कहतीं, “वाह, पिंटू तुम्हारा रिश्ते का चचेरा भाई है। रद्दी साड़ी देना क्या ठीक लगता?” और इसी लाबू के मामले में अच्छा, लाबू का यह लड़का, जो नौकरी करने आ रहा है, क्या उम्र होगी उसकी? लगता है उस दिन की तो बात है जब इसके अन्नप्राशन की दावत खाने वे और प्रनति उनके हगली वाले घर में गये थे। तब लाबू के सास-ससुर भी जीवित थे।
उस समय प्रनति अपने साथ कितना सामान ले गयी थीं। बच्चे के लिए सिल्क की चेली, चाँदी की कटोरी, सिल्क का नन्हा-सा कुतो-सा कर्ताः"उसमें इतने छोटे-छोटे सोने के बटन "इसके अलावा मिठाई फल तो था ही।
प्रवासजीवन को देखकर खुशी ही हुई थी फिर भी बोले थे. “क्या इतना दिया जाता है?"
प्रनति झिड़ककर बोली थीं 'वाह ! नहीं दोगे क्या? तुम मामा हो कि नहीं? मामा के यहाँ से ही खीर-चटाई का सामान जाता है।"
उसके बाद सोचा था, अच्छा हुआ प्रनति ने सब कुछ मन से कर दिया था। दोबारा तो लाबू बेचारी के बच्चा हुआ नहीं। असमय में विधवा हो गयी। इसीलिए प्रनति भी उससे सहानुभूति रखती थी। अपने बड़े बेटे की शादी के वक़्त लाबू को जबरदस्ती ले आयी थी प्रनति।
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