उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
ब्रतती ने सौम्य की ओर देखा। फिर बोली, “रहने दूंगी।”
“रहने दोगी? सच कह रही हो?'
"सच कह रही हूँ। जा तब तक लाई-जलेबी खा आ जाकर।" अबकी बार उसने दो रुपये का नोट बढ़ा दिया। इस नोट को उदय ने प्रसन्नतापूर्वक ले लिया। बोला, “देखना-बात पक्की रहे।"
ब्रतती बोली, “रहेगी। लेकिन बाप ने दीदी को जो बेच दिया, इसके लिए पुलिस बाप को पकड़ सकती है-जानता है न? जेल जाना पड़ता है।"
“मैं यह सब नहीं जानता हूँ। मोटा आदमी ताड़ीवाला है। बाप उससे उधार पर हमेशा ताड़ी ले-लेकर पीता था। अब वह पैसे माँग रहा था। बाप देता कहाँ से? इसीलिए दीदी को बहला-फुसलाकर ले गया और उसके हाथ बेच दिया। मैं जाता हूँ।”
दौड़कर निकल गया।
“सौम्य," ब्रतती बोली, “महासमुद्र के किस घाट से पानी नापने के लिए उतरना चाहिए?"
सौम्य मुस्कराया। "समुद्र का कोई घाट नहीं होता है, ब्रतती।"
"हम ऐसे लोगों में चेतना जगाने की कोशिश कर रहे हैं न?”
"कोशिश तो करते ही रहना है। लेकिन तुमने जो उसे यहाँ रखने का भरोसा दिया है उसका क्या होगा?"
"हर्ज क्या है सौम्य? भवेश दा के कमरे के अलावा भी उधर एक चौका मैंने देखा है। छोटा-सा आँगन है, एक पैसेज भी है। रहना चाहे तो रह सकता है।"
"तुमने तो कह दिया रह सकता है। और सब मेम्बर राजी हो जायेंगे?
“राजी न होने की क्या बात है? लड़के ने कहा तो ठीक ही है। चोरी जाने जैसी एक चीज़ यहाँ है नहीं। भवेश दा की कुछ किताबें ज़रूर हैं लेकिन उन्हें कोई चुरायेगा नहीं।"
“सुकुमार से पूछो।"
ब्रतती दृढ़तापूर्वक बोली, “सुकुमार ही से क्यों-सुकुमार कोई उनका उत्तराधिकारी नहीं है-मैं सभी से कहूँगी। मुझे तो इसमें कोई हर्ज नहीं दिखाई दे रहा है बल्कि कमरों की सफ़ाई ही हो जायेगी।"
सौम्य फिर मुस्कराया। बोला, “यह सब वैसे हमारे नियम के विरुद्ध है। खैर मान लो रह गया, खाएगा क्या?'
“यह सोचकर तय करना होगा। पुलिस को खबर करके उसके बाप को डरा-धमका कर कुछ वसूलने की व्यवस्था हो सकती है।"
“व्यवस्था कुछ नहीं हो सकती है ब्रतती। केवल सपने देखे जा सकते हैं। लेकिन इस घर में अकेले इतना-सा लड़का रह सकेगा?”
ब्रतती बोली, “हाँ यह सोचने की बात ज़रूर है। आने दो, पूछकर देखती हूँ।"
लड़के के लौटने से पहले ही गौतम और अत्री आ गये। पूछा, “लेख पढ़ा?”
“पढ़ा है।” सौम्य बोला।
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