उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
और सचमुच मिंटू वही कह बैठी "है तो क्या फ़र्क पडता है"घर से बिदा तो कर देगे।"
“ओह ! तो मन उदास है शादी के नाम पर।" बोली, "लड़की जात हो"घर में तो रखी नहीं जा सकती हो, बेटी।"
एकाएक मिंटू उठकर खड़ी हो गयी। बोल उठी, “तो भी हज़ारों मील दूर उठाकर पटक देने का भी कोई माने नहीं होता है। आसपास भी रखा जा सकता है ये वे लोग सोचते ही नहीं हैं। माँ भी नहीं, चाची भी नहीं। अच्छा, मैं जा रही हूँ।"
लाबू ने हाथ बढ़ाकर उसका हाथ पकड़ लिया। गाढ़ी आवाज़ में धीरे से पुकारा, “मिंटू?”
मिंटू कुछ नहीं बोली। चम्पा के पेड़ की तरफ़ गर्दन घुमाये देखती खड़ी रही। लाबू बोलीं, “मिंटू ! मुझमें इतना साहस क्या होगा बेटी?” फिर भी मिंटू ने उत्तर नहीं दिया।
और कितना कहे? भयंकर गुस्से से भरकर चली आयी थी। सोचा था, "ठीक है, अरुणदा। अगर ये बात मेरे कहने की है तो मैं ही कहने आयी हूँ।”
और धीरे से लाबू बोली, “मेरा गरीब का घर है, बेटी।" "गरीबी की इसमें क्या बात है? छोड़िए, मैं जाऊँ।"
लाबू ने हाथ नहीं छोड़ा। बोलीं, “बैठ। ज़रा बैठ तो।" फिर बोली, “माँ लक्ष्मी स्वयं घर में आ जाये तो कोई गरीब नहीं रह जाता है लेकिन अगर मैं दीदी से जाकर भिक्षा माँगें साफ़ इनकार तो नहीं कर देंगी?'
गर्दन उसी तरफ़ घुमाये रही मिंटू, “मुझे यह सब नहीं मालूम। मैं जा रही हूँ।"
लाब् बोली, “ठीक है ! तुझे जानने की ज़रूरत नहीं है।" हाथ छोड़ दिया उन्होंने।
मिंटू बोली, “मैं लेकिन अपनी एक सहेली के घर गयी थी-इम्तहान का एडमिट कार्ड कब मिलेगा यह जानने। याद रहेगा न?”
लाबू ने हँसकर उसका सिर खींचकर अपने सीने से लगा लिया, “रहेगा याद ! खूब अच्छी तरह से रहेगा।"
मिंटू चली गयी। मैं जाऊँगी। कल ही जाऊँगी। मन ही मन बोली लाबू, “ओ मियाँ अरुण बाबू, अब मैं किसी से नहीं डरती
एक असहाय हृदय अगर किसी से आश्रय माँगता है तब शायद आश्रयदाता में ऐसी ही शक्ति आ जाती है।
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