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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2100
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

15


दोपहर बीत रही थी। घर के पश्चिमी भाग पर धूप अभी तक फैली थी लेकिन पूरब की तरफ़ मनोरम हो गया था। बढ़िया ठण्डी हवा भी चल रही थी। आँगन के बड़े वृक्ष के नीचे स्निग्ध शान्ति व्याप्त थी।

इसी तरफ़ लाबू की रसोई है, भण्डारगृह है। कुआँ भी इधर ही है। कुएँ का किनारा अभी-अभी सीमेण्ट से पक्का करवाया है। चौड़ा साफ़-सुथरा चबूतरा सबका ध्यान आकर्षित करता है। यूँ भी लाबू का हाथ लगते ही हर चीज़ चमकने लगती है। कुएँ का किनारा तक हर समय सूखा रहता है। लाबू की आदत है सब काम पहले से ही करके रख देने की। इस समय इसीलिए विशेष कुछ करना नहीं था।

लाबू का चेहरा कुछ उतरा-सा था। दो दिन पहले तक ऐसी बात नहीं थी। वह अपने को खूब सुखी समझती थी लेकिन दो ही दिन में सब कुछ बदल-सा गया था। लडके के भावान्तर ने उसे चिन्ता में डाल दिया था। विचलित थी।

मिंटू को देखने आयेंगे सुनते ही लड़के में जाने कैसा बदलाव आ गया। तब क्या लाबू को यह बात पहले ही समझ लेनी थी? अवश्य समझ लेनी थी। लेकिन लाबू का तो उधर ध्यान ही नहीं गया था। ध्यान न देने का शायद कारण था। वे दोनों इतने सहज ढंग से बातचीत करते, हँसी-मज़ाक, छेड़छाड़ करते, उनका ऐसा स्वच्छ व्यवहार था कि इधर ध्यान देने का प्रश्न ही नहीं उठा।

लावू ने सोचा लड़का खुद भी नहीं समझा होगा-अपने मन की उसे ख़बर ही नहीं होगी। इस समाचार ने उसके मन को झकझोर कर जता दिया होगा। लेकिन अव क्या किया जाये?

क्या लाबू अपने पड़ोस के रिश्ते के सम्मानित जेठ-जिठानी के आगे आँचल फैला दे?

वैसे बेटे के लिए लाबू सब कुछ कर सकती है। वरना प्रवास भाई को पत्र क्यों लिखती?

परन्तु क्या आँचल फैलाते ही भिक्षा मिलेगी? फिर अरुण से पूछे बगैर वह जा भी तो नहीं सकती है।

अगर वह नाराज़ हो जाये? अगर कह बैठे, 'तुम अपने आत्मसम्मान को दाँव पर लगाने गयी क्यों थीं? है तुम्हारा बेटा उनका दामाद होने लायक?

और फिर "इसी मोहल्ले में इतने चिर-परिचित घर में शादी क्या सबको पसन्द होगा? कहीं पड़ोसी कोई गम्भीर कारण न ढूँढने बैठ जायें?

सोच-सोचकर लाबू का जी घबराने लगा। लड़के को लाबू ने प्यार किया था, उससे डरती नहीं थी। लेकिन सहसा बेचारी के मन में डर के भाव पैदा हो गये थे। मन ही मन कितना कुछ सोचे बैठी थी। ज़रा और ठीक-ठाक कर लेती तो उससे शादी की बात कहती। लड़की ढूँढ़ने के लिए लोगों से कहती। एक नम्र, शान्त सुन्दर बहू घर ले आती उससे प्यार करती, उसका ध्यान रखती। कहती, 'मेरी गृहस्थी में तुम्हें अभी से जुटने की कोई ज़रूरत नहीं है बेटी बस मेरे बेटे का ध्यान रखना सीख लो।'

लाबू अपनी बहू से ईर्ष्या तो करेगी नहीं उसे डाँट-डपट भी करने का प्रश्न नहीं उठता है। लाबू ऐसी ही बातें सोचती आ रही थी इस आकस्मिकता के लिए वह प्रस्तुत नहीं थी।

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