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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2100
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

अगर मिंटू के माँ-बाप मुँह पर हँसना शुरू कर दें? अगर कहें, “अरे अरुण ! तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है? मिंटू के लिए तुम्हें समय दे दें? हा हा हा हा।"

असहाय इन्सान जो करता है अरुण ने भी वही किया। मिंटू नामक लड़की पर अपनी अक्षमता का गुस्सा उतारा।

बोला, “मैं? मैं सोच-समझकर क्या करूँगा? मेरे अख्तियार में है कुछ? हमेशा से जो कहावत प्रचलित है न- 'वामन का चाँद पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाना'- मेरी भी वही दशा है। मैं सोच-समझकर कुछ करूँगा तो यही ताना सुनना पड़ेगा।"

बात एक सीमा तक थी तो सच ही। मिंटू के पिता शरत राय मोहल्ले में सबसे प्रतिष्ठित और सम्पन्न व्यक्ति हैं। एक के बाद एक करके दो-तीन सन्तान असमय में ही चल बसी थीं। देवी-देवताओं की मिन्नत करने से मिली थी मिंटू। उसके लिए शरत राय अरुण जैसा लड़का भला क्यों ढूँढ़ने लगे?

अरुण बोला, “मैं कुछ करनेवाला कौन होता हूँ?' मिंटू की आँखें सुनकर जल उठीं।

बोली, "फिर कौन करेगा?'

"करने-धरने की जरूरत ही क्या है? अमीरों के घर जाओगी, सुख-चैन से घर-गृहस्थी करोगी।"

इससे पहले मिंटू ने अपने मन की बात कभी किसी से की नहीं थी लेकिन आज वह बड़ी परेशान थी। कल से उसके मन में व्याकुलता भरी आँधी चल रही थी। सारी रात यही सोचती रही थी कि अरुण से कब और कहाँ मुलाक़ात हो सकती है। कैसे कहेगी कि ‘ऐसा होने नहीं दिया जायेगा।' आज तक तो स्पष्ट शब्दों में किसी ने भी कुछ नहीं कहा। दोनों में से एक ने भी नहीं। सिर्फ आँखों की भाषा से दोनों काम चलाते जा रहे थे। इतने दिनों से एक अलिखित समझौता काम करता आ रहा था कि एक का दूसरे पर अधिकार है। एक दूसरे की निजी सम्पत्ति हैं।

लेकिन अब मिंटू ने देखा, दिल खोलकर रख देने के अलावा कोई चारा नहीं।

बिगड़कर बोली, "देखो अरुणदा, फालतू बातें करके जिम्मेदारी टालने की कोशिश मत करो। पिताजी से न कह सको तो माँ से कहो।"

"क्या कहूँ?

“ओफ्फो ! असहनीय क्या कहोगे क्या यह भी बता देना पड़ेगा? क्यों, तुम्हारी तरफ़ से क्या बोलने को कुछ भी नहीं है?"

उदास स्वर में अरुण बोला, “रहे भी तो बोलने का मुँह कहाँ है?"

“अरुणदा, मुँह क्या सिर्फ बड़ी नौकरी पर निर्भर है?'

“और नहीं तो क्या? राजकन्या और चरवाहे की कहानी रूपकथा के लिए ही होती है।"

“चुप रहो। फालतू बातें छोड़ो। माँ से जाकर कहो, ताईजी मिंटू की शादी अन्यत्र नहीं हो सकती है।"

अरुण ने एक वार अपलक उसे देखा फिर बोला, “मेरा ऐसा कहना जंचता नहीं है, मिंटू। कहना ही है तो तुम कहोगी।"

“मैं कहूँगी?"

“और नहीं तो क्या? यह बात कहने का हक़ और किसे है?"

“इसके मतलब"तुम एक कापुरुष हो।"

“अधम पुरुष ही कापुरुष हुआ करते हैं मिंटू। किस शक्ति के बल पर वे वीर पुरुष बनने की धृष्टता करें?

सहसा मिंटू को रोना आ गया।

बड़ी मुश्किल से अपनी भावनाओं पर काबू पाते हुए बोली, “ठीक है। समझ गयी। समझ गयी कि मेरे लिए तुम्हारे मन में ज़रा-सी भी जगह नहीं है।"

फिर उठकर बाल्टी से गीले कपड़े झाड-झाड़कर तार पर फैलाने लगी।

अरुण बोला, “जा रहा हूँ।" मिंटू कुछ नहीं बोली।

कपड़े फैलाकर अपने कमरे में चली गयी। बिस्तर पर औंधी लेटी रही। उसके पिताजी ने थोड़ी देर बाद बाज़ार से लौटकर पुकारा-"मिंटू मिंटू !"

मिंटू उठी नहीं।

उठे कैसे? उसके पेट में असह्य दर्द नहीं हो रहा था क्या?

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