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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2100
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

कितनी बातें बतानी थीं।

लाबू के दुर्भाग्य से परिस्थिति ही बदल गयी। वह सोचती थी लड़के की रग-रग से वह वाकिफ है-तो क्या ऐसा सोचना उसका भ्रम था? झूठा अहंकार था? अब लाबू क्या करे? लाबू के लिए करने को बचा ही क्या था?

इन्सान जो सोचता है वह क्या हर समय कर पाता है?

माँ से तो कह आया कि ताऊजी के यहाँ जाने का सवाल ही नहीं उठता है और इधर अपने अनजाने में उसी घर के सामने जा पहुंचा।

लेकिन उसे क्या आशा थी कि पहले मिंटू ही मिलेगी? आधे आँगन में धूप आ गयी थी। मिंटू गीले कपड़े फैला रही थी।

उधर की रसोई से बर्तनों की आवाज़ से साफ़ पता चल रहा था कि वहाँ मिंटू की माँ मौजूद है।

मिंटू ऊँचे तार पर पिताजी का एक कुर्ता डालकर उसे ठीक से फैलाने का प्रयास कर रही थी। अरुण ने पीछे से हाथ बढ़ाकर उसे ठीक कर दिया।

चौंककर मिंटू ने पीछे देखा। बोल उठी, “अरे, यह क्या? तुम कब आये?"

“अभी। ताऊजी कहाँ हैं?

आज मिंटू ज़रा गम्भीर दीख रही थी। हर बार अरुण को देखते ही आँखों और चेहरे पर जो चमक आ जाती थी आज वह चमक गायब थी। बाल्टी में रखे बाकी। गीले कपड़ों की तरफ़ दोबारा नहीं देखा मिंटू ने।

शान्त स्वर में बोली, “तुम्हें अगर पिताजी से मिलना है तो ज़रा इन्तज़ारी करनी होगी। वे बाजार गये हैं।"

अरुण ने भौंहों पर बल डालते हुए कहा, “ताऊजी से मुझे क्या काम है?"

“वाह, मुझे क्या पता? आते ही तुमने पिताजी के बारे में पूछा तो मैंने सोचा कोई ज़रूरी काम होगा। हो सकता है तुम्हारी कोई ज़मीन-जायदाद बिकी जा रही है इसीलिए..."

सहसा अरुण कडुआहटभरी आवाज़ में बोल उठा, “खूब चालबाज़ी आ गयी है क्यों? बड़े घर में ब्याह हो रहा है इसीलिए इतना अहंकार?'

मिंटू ने जलती नज़रों से देखा। कड़ी आवाज़ में बोली, “अभद्रों की भाषा में बात मत करो।"

“वाह ! खूब ! केवल अहंकार ही नहीं और कुछ भी है।"

मिंटू चार क़दम पास चली आयी। बोली, “क्या तुम ऐसी कड़वी बातें करने के लिए ही सुबह-सुबह आ पहुँचे हो??

“ओह ! कडुवी बात ! मेरी बातें कडुवी लग रही हैं, क्यों? सच तो हमेशा कडुआ होता है।"

एकाएक मिंटू आँगन के किनारे चबूतरे पर बैठकर हताश भाव से बोल उठी, “बेकार ही झगड़ा करके समय नष्ट मत करो, अरुणदा। सोच-समझकर जल्दी से कुछ करो।"

अरुण तब भी झुकने को तैयार नहीं।

शायद उसकी अक्षमता, असहायपन ही उससे ऐसी बातें करवा रहा था। अरुण क्या सोच सकता है अथवा क्या उसमें साहस है कि मिंटू के माँ-बाप से कहे, “मिंटू की शादी के लिए अभी से परेशान न हों। मुझे थोड़ा समय दीजिए।"

ऐसा क्या सम्भव है?

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