उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
अरुण ने इधर-उधर देखने के बाद कहा, “हे बालिके ! तो तुम हो बलि के लिए उत्सर्ग किया हुआ बकरा मात्र।”
भारी आवाज़ में मिंटू बोली, “इसके अलावा और क्या? "शेम, शेम ! आज के नारी-मुक्ति के युग में तू ऐसी बात कर रही है?" "जो सच है उसे स्वीकार करने का सत् साहस है तभी कह रही हूँ।"
अरुण बोला, “धत् ! सुबह-सुबह ऐसी बातों से मन में फिसलन पैदा मत कर। अच्छी बातें कर।"
"मैं क्या अच्छी बातें कर सकती हूँ ! बल्कि तुम कर सकते हो नयी और अच्छी बात, नये दफ़्तर की बात।”
“धत् ! एक सरकारी क्लर्क क्या करेगा दफ़्तर की बात?'
“वाह ! सरकारी क्लर्क दफ़्तर ही की बातें तो करते हैं। दफ़्तर ही उनका सब कुछ होता है ज्ञान, ध्यान"."
“यह दिव्य ज्ञान तुझे दिया किसने?”
"दिया किसने? कह सकते हो मेरी छोटी मौसी ने। छोटी मौसी कहती है, 'तेरा छोटा मौसा दफ़्तर के अलावा कोई और बात करना जानता ही नहीं। "
सहसा अरुण प्रसंग परिवर्तित कर बोल उठा, “इस साड़ी में तो तू बड़ी जबरदस्त लग रही है?"
मिंटू चौंक उठी। ठीक इस तरह की बात इससे पहले तो कभी नहीं कही थी अरुणदा ने। तो क्या यही है 'प्रेम निवेदन'? या यूँ ही सहज स्वाभाविक बात कह रहे हैं?
बचपन से ही दोनों में जाने कैसा बन्धन रचा हआ है। वे जानते हैं बात करते समय एक दसरे से न कछ छिपाना है न सौजन्यता बनाये रखकर बातें करनी हैं। जो जी में आये कहा जा सकता है। जैसे दोनों के बीच अलिखित अनुबन्ध हो।
मिंटू का चेहरा लाल पड़ गया। परन्तु सँभल गयी। बाली, “आहा, क्या तो साड़ी है।"
“मैंने यह तो नहीं कहा था कि साड़ी जबरदस्त है। कहा था त जबरदस्त लग रही है।"
“ठीक है। अब इस विषय पर बात मत करो।"
फिर गले का स्वर नीचे उतारकर धीरे से बोली, “पुजारीजी आ रहे हैं। दूर से दिखाई पड़ रहे हैं।"
अरुण जल्दी से बोला, “मैं खिसकता हूँ। बुड्ढे की आँखों में मोतियाबिन्द हुआ ज़रूर है लेकिन अभी भी दृष्टि तीक्ष्ण है।"
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