उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
अरुण किसी उद्देश्य से नहीं निकला था। यूँ ही घर से निकल आया था। परन्तु मिंटू कहाँ जा रही थी? शायद अरुणदा के ही घर जाने के इरादे से कारण दिखाना ऐसी कोई मुश्किल बात भी नहीं।
पड़ोस की चाची लावण्यलेखा से जाकर कहना-भर होगा, ‘अच्छी चाची, आपके यहाँ फलाँ पौधा है क्या? पिताजी का पेट ज़रा गड़बड़ है पत्ते चाहिए।'
मिंटू के पिताजी का बारहों महीने पेट गड़बड़ रहता ही है। इसीलिए बिना निर्देश के मिंटू अगर पत्ते लेकर पहुंचेगी तो उसकी पितृभक्ति की सराहना ही होगी और फिर इतनी देर तक घर से बाहर रहने का सही कारण भी बता सकेगी।
लेकिन मुलाकात रास्ते ही में हो गयी।
और दोनों, अनमने से चलते-चलते खेत मैदान पार कर सड़क के अन्तिम छोर तक आ गये। क्या पता इसके पीछे भी कोई चतुराई हो-कह देगी 'बूढ़े शिव' को पूजने गयी थी।
यद्यपि 'बूढ़े शिव' के प्रति अरुण को कभी भी भक्तिभाव दर्शाते नहीं देखा गया है।
हाँ अब नौकरी लगी है इसीलिए कृतज्ञभाव मन में हो भी सकता है।
मिंटू की बात और है। उसकी माँ ने तो बचपन ही से उसे शिक्षा दी है शिव के सिर पर जल चढ़ाने की। ताकि शिवजी जैसा वर प्राप्त हो सके।
इधर दुनिया भर में आजकल 'नारी-मुक्ति का आन्दोलन जोर पकड़ रहा है। युग-युगान्तर से अबोध, अबला नारी-जाति को किस-किस तरह से शोषित किया गया है, उस पर तीव्र से तीव्रतर आलोचनाएँ हो रही हैं। नारी-जाति के आगे अब प्रमुख प्रश्न यह है कि ये समाज पुरुष-शासित रहे या नहीं।
फिर भी दुनियाभर की कोटि-कोटि युवतियाँ भली-भाँति जानती हैं कि उनके जीवन की परम प्राप्ति है एक उत्तम वर। एक अच्छा सुसम्पन्न घर।
इसी तरह से विचार करते चले आ रहे हैं उनके अभिभावकगण। अपनी परम प्रिय पुत्री को कैसे इसके उपयुक्त बनायें?
अच्छा वर, अच्छा घर मिलता ही कितनों को है? फिर भी कोशिश तो करनी ही पड़ती है। उसी कोशिश का एक भाग है शिव के सिर पर जल चढ़ाना।
आश्चर्य की बात है। एक ही गाँव के लड़के-लड़की। जब से पैदा हुए हैं तभी से एक दूसरे को देखते आ रहे हैं। फिर भी जब एकाएक किसी मौके पर, किसी रहस्यात्मक ढंग से मुलाकात हो जाती है तो वह मूल्यवान हो जाती है।
यद्यपि यह बात कोई नयी नहीं।
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