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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2100
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

लेकिन क्या सचमुच अरुण ने प्रवासजीवन नामक उस व्यक्ति से यही कहा था? माँ से कभी झूठ नहीं बोला था अरुण। आज बोला। न बोलता तो करता क्या? कैसे कहता कि घर में और सभी लोग थे, माँ। मुझे देखकर नौकर के साथ सीधे मालिक के पास पहुंचा दिया। वही नौकर थोड़ी देर बाद चाय और फ्रिज़ में रखा ठण्डा, कड़ा-कड़ा दो 'सन्देश' रख गया। और मालिक? मालिक ने मरी-मरी आवाज़ में माँ के बारे में दो-एक बातें पूछने-कहने के बाद ही गले की आवाज़ दबाते हए फसफसाकर कहा था, "बुरा मत मानना, बेटा। मुझे लग रहा है तुझे यहाँ रहने पर कुछ खास सुविधा न होगी। तू एक साधारण-सा मेस देख ले उसका खर्च मैं दे दिया करूँगा।" कहते-कहते उन्होंने दोनों हाथ पकड़ लिये थे कसकर।

यह बात क्या माँ से कही जा सकती है?

क्या यह कहा जा सकता है कि मैंने भी उसी तरह दबी आवाज़ में जवाब दिया, “यह सब सोचकर आप अपना मन छोटा मत कीजिए, मामाजी। ठीक है, ठीक फिर ऊँची आवाज़ में कहा था, "माँ तो मेरे लिए सोच-सोचकर परेशान है। लेकिन मैंने सोचकर देखा है कि माँ को इस तरह से वहाँ अकेले छोड़कर मेरा यहाँ  आना उचित नहीं। हजारों आदमी तो डेली पैसेंजरी कर रहे हैं।"

यह सब कहा नहीं जा सकता है इसीलिए मन से गढ़कर कहना पड़ा था। "तु ये कह आया कि माँ को अकेला छोड़ना ठीक नहीं? "हाँ।"

"छिः छिः ! कैसा बुद्ध लड़का है रे तू? प्रवासदा के यहाँ रहता तो तुझे कितना आराम हो जाता?

“छोड़ो आराम को, हर वक़्त तुम्हारी चिन्ता लगी रहती।"

“ओ माँ ! कैसा पागल लड़का है रे? ये तो तय ही हो गया था कि रात को कन्हाई की माँ आकर मेरे पास सोयेगी और फिर हफ्ते में दो रात तो तू ही यहाँ रहता।"

"बाकी पाँच रात?

"क्या तेरी माँ को भूत खा जाते?'

“इसमें आश्चर्य की क्या बात है? कल एक ही तो माँ है मेरी। रिस्क लेना क्या ठीक होता?"

सहसा लाबू की आँखें भर आयीं। जबरदस्ती वह खिलखिलाकर हँस उठी, “आहा रे ! लोगों की तो ढेर-ढेर सारी माँयें रहती हैं, तेरी ही कुल एक माँ है।"

इतनी भावुक वह है नहीं कि लड़के को खींचकर गले से लगा लेती। इसीलिए लड़के की नज़र बचाकर आँख पोंछते हुए बोली, “तू तो मूों का राजा है। अमीर मामा के यहाँ बढ़िया-बढ़िया पकवान खाता, तेरा स्वास्थ्य सुधर जाता"फिर लोकल ट्रेन की भीड़ के धक्के न खाने पड़ते।"

अरुण ज़ोर से हँसने लगा। बोला, “बुद्ध माँ का बेटा बुद्धू नहीं तो क्या चालाक होगा श्रीमती लावण्यलेखा देवी? तुम्हारे हाथ के बने पोस्ते के पकौड़ों से क्या ज़्यादा स्वादिष्ट होते अमीरों के पकवान?'

सुनकर लावण्यलेखा नामक चिरवंचिता, चिरदुखी महिला का मन सुख से लबालब भर उठा। और वही सुख आँखों के रास्ते बहकर बाहर आने के लिए व्याकुल होने लगा।

और देर रात को जब खाने-पीने के बाद अरुण अपनी शय्या पर लेट गया तब अपने कमरे में, बिस्तर पर बैठकर सोचने लगी, 'सच, कितनी बुद्धू है वह ! बुद्धिहीनता के परिणाम स्वरूप कितना कुछ खो देनेवाली थी।'  

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