उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
उसने पोस्ते का पकौड़ा उठाकर मुँह में भरते हुए कहा, “फर्स्ट क्लास ! इसे छोड़कर कहीं और जाकर कोई रहता है? असम्भव।”
लाबू ने सोचा-यूँ ही कह रहा है। उदास हँसी हँसकर बोली, “अच्छा बना है?"
“परफेक्ट।”
कप उठाकर चाय पीने लगा।
उसके बाद बोला, “ओफ़, ट्रेन में कितनी भीड़ ! हज़ारों-हज़ारों लोग डेली पैसेंजरी करते हैं, माँ। 'चिउड़े जैसा चपटा हो जाना' कहावत शायद इसी को देखकर कही गयी थी।"
माँ धीरे से बोली, “वही तो। रोज़ जान हथेली पर रखकर आना-जाना तभी तो ..."
अरुण ने तिल का लड्डू उठाकर उस पर दाँत जमाये, “मैंने सोचकर देखा जब इतने लोग आ-जा सकते हैं तो मुझसे क्यों नहीं हो सकेगा?"
“इसके मतलब?' चौंककर लाबू ने तीखी आवाज़ में पूछा।
अरुण बोला, “मतलब ये कि माँ को इस तरह से अकेला छोड़कर मामा के घर का दुलार लूटने जाना, कोई अच्छी बात नहीं। सबों की तरह यही डेली पैसेंजरी करूँगा देखू, कर पाता हूँ या नहीं।"
“अरुण, बच्चों-जैसी बात मत कर, बेटा। जब सुविधा है तब क्यों तकलीफ़ करेगा? बेटा, मेरी बात मत सोच। हर हफ्ते तो आयेगा ही। यह बता तेरे मामा कैसे हैं?
"खूब अच्छे।” "क्या बोले?' “कुछ नहीं।"
"नहीं, माने मेरे बारे में कुछ पूछ...”
“अरे बाप रे ! वही तो मुख्य विषय था। तेरी माँ अभी भी पहले जैसी दुबली है क्या? खूब बुढ़िया लगती है क्या? आज भी उसी तरह बातें करती है या नहीं?"
सुनकर लाबू बहुत खुश हुई। फिर बोली, “देख, मैंने कहा था न ! "तेरे बड़े भाई लोग मिले कि नहीं?"
"भइया लोग नहीं तो?'
“घर पर न होंगे शायद ! भाभी तो थी न?”
"नहीं। और किसी को तो नहीं देखा। सिर्फ भूषण या ऐसा ही कुछ नाम था, एक कोई आकर चाय दे गया था।"
"भूषण ! अरे वाह, वह आज भी है? मामी के समय का आदमी है। पर घर के सारे लोग गये कहाँ? सिनेमा-विनेमा क्या? खैर, तू मामा से कह आया है न कि कल एकदम सामान के साथ..." कहते-कहते वह चुप हो गयी। मुँह फेरकर दूसरी तरफ़ देखने लगी। गला बँखार कर साफ़ किया।
और उसके कुछ बोलने से पहले अरुण ही बोल उठा, “मेरे कुछ कहने से पहले उन्हीं ने तो कहा। खैर मैंने तो कह दिया, 'माँ ने लिखा ज़रूर है लेकिन अब मैंने सोचकर देखा कि माँ को उस तरह से अकेला छोड़कर मेरा यहाँ आना ठीक नहीं।"
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