कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
|
0 |
स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
इस प्रकार परस्पर वार्तालाप करते हुए, पण्डा जी ने घर के आंगन में पहुंच
कर आवाज दी- ''बेटी ललिता! कहां हो ?'' ''काका जी,
जै गोकुलेश!'' कहती हुई, द्रुत गति से सीढ़ियां पार कर, हँसी से चहकती हुई
ललिता हाथ जोड़े पण्डा जी के सम्मुख खड़ी हो गई।
कमल ने दृष्टि उठा कर देखा। ललिता का रूप-लावण्य बिजली की भांति आंखों में
कौध गया। सहसा मन में प्रश्न उठा-यह विधवा है, या प्रफुल्लता की साक्षात
प्रतिमा? कमल का हृदय प्रसन्नता से भर गया।
एकान्त में पण्डा जी ने ललिता को कमल का केवल इतना परिचय दिया-''बड़े घर के
लड़के हें। आजकल शोकग्रस्त हैं। मन बहलाने के लिए कुछ दिन यहां रहेंगे।
इनका भोजन तुम स्वयं ही बना दिया करना। घर से बर्तन-भांडे तो लाए नहीं
हैं-जो खर्च पड़े, ले लेना। लड़का भला जान पड़ता है-कुछ कष्ट न होने पाए। मैं
तो, बेटी, इस बार लम्बी यात्रा को जा रहा हूं। चारों धाम करके लौटूंगा
अच्छी तरह रहना।
ललिता ने खिलखिलते हुए सरलता से स्वीकृति दे दी-'जैसी आज्ञा काका जी! एक
आदमी का भोजन बनाना कौन सी कठिन बात है। मैं तो अपने सभी यात्रियों की
यथाशक्ति सेवा करने को तत्पर रहती हूं। मुझे और काम ही क्या है!''
पण्डा जी दोपहर में भोजन आदि करके चले गए। ललिता बाल-विधवा थी। न अनुराग
से उसका परिचय हुआ, न मातृत्व से। परिस्थितिवश, या अपनी स्वाभाविक
मनोवृत्ति के कारण, पूर्ण यौवन प्राप्त करके भी वह यौवन के अस्तित्व से
बेखबर थी। प्रकृति ने उसके हृदय में एक ऐसी अलौकिक मस्ती दी थी कि वह अपने
में ही मगन रह कर हर समय आनन्दविभोर रहती थी। संगीत से उसे बहुत प्रेम था।
आठ पहर, कोकिल की भांति, वह अपने सुरीले कंठ से मस्त होकर कूकती रहती।
सरिता की चंचल लहरों की भांति, उसका हृदय भी संगीत-लहरियों के साथ नर्तन
करता रहता। स्वत: ही उसे कोई ऐसी दिव्य प्रतिभा प्राप्त थी, जिसने जीवन के
अभावों के प्रति उसे इतना लापरवाह बना दिया था, मानो जीवन में उसे कुछ
अभाव ही न हो। कितने ही यात्री उसके घर आ कर ठहरते। वह सबकी सुध
लेती, अपनी हँसी और गीतों से सबके मन को रिझाती और हँसते-हँसते ही सबको
बिदा कर देती; मानो वह मानवी हृदय किसी ऐसी अनुपम वस्तु से बना था, जो
माया-मोह, राग-द्वेष, दुख-शोक से रहित होकर अपने ही भीतर की प्रसन्नता में
तल्लीन रहता था। किन्तु कमलकिशोर ऐसे यात्री आए कि जिन्होंने ललिता के
हृदय की गतिविधि में परिवर्तन कर उसे प्रेम के रस में उन्मत्त कर दिया और
उसने हँसते-हँसते अपने को कमल को समर्पित कर दिया।
|