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शिवसहस्रनाम

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :16
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2096
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव के सहस्त्रनाम...


रुचिर्विरञ्चि: स्वर्बन्धुर्वाचस्पतिरहर्पति:।
रविर्विरोचन: स्कन्द: शास्ता वैवस्वतो यम:।।५६।।

४४४ रुचि: - दीप्तिरूप, ४४५ विरञ्चि: - ब्रह्मस्वरूप, ४४६ स्वर्बन्धु: - स्वर्लोक में बन्धु के समान सुखद, ४४७ वाचस्पति: - वाणी के अधिपति, ४४८ अहर्पति: - दिन के स्वामी सूर्यरूप, ४४१ रवि: - समस्त रसों का शोषण करनेवाले, ४५० विरोचन: - विविध प्रकार से प्रकाश फैलाने वाले, ४५१ स्कन्द: - स्वामी कार्तिकेय रूप, ४५२ शास्ता वैवस्वतो यम: - सब पर शासन करने वाले सूर्यकुमार यम।।५६।।

युक्तिरुन्नतकीर्तिश्च सानुराग: परञ्जय:।
कैलासाधिपति: कान्त: सविता रविलोचन:।।५७।।

४५३ युक्तिरुन्नतकीर्ति: - अष्टांगयोग-स्वरूप तथा ऊर्ध्वलोक में फैली हुई कीर्ति से युक्त, ४५४ सानुराग: - भक्तजनों पर प्रेम रखने वाले, ४५५ परञ्जय: - दूसरों पर विजय पानेवाले, ४५६ कैलासाधिपति: - कैलास के स्वामी, ४५७ कान्त: - कमनीय अथवा कान्तिमान्, ४५८ सविता - समस्त जगत्‌ को उत्पन्न करनेवाले, ४५९ रविलोचन: - सूर्यरूप नेत्रवाले।।५७।।

विद्वत्तमो वीतभयो विश्वभर्त्तानिवारित:।
नित्यो नियतकल्याण: पुण्य श्रवणकीर्तन:।।५८।।

४६० विद्वत्तम: - विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ, परम विद्वान्, ४६१ वीतभय: - सब प्रकार के भय से रहित, ४६२ विश्वभर्ता - जगत्‌ का भरण-पोषण करनेवाले, ४६३ अनिवारित: - जिन्हें कोई रोक नहीं सकता ऐसे, ४६४ नित्य: - सत्यस्वरूप, ४६५ नियतकल्याण: - सुनिश्चितरूप से कल्याणकारी, ४६६ पुण्यश्रवणकीर्तन: - जिनके नाम, गुण, महिमा और स्वरूप के श्रवण तथा कीर्तन परम पावन हैं, ऐसे।।५८।।

दूरश्रवा विश्वसहो ध्येयो दु:स्वप्ननाशन:।
उत्तारणो दुष्कृतिहा विज्ञेयो दुस्सहोऽभव:।।५९।।

४६७ दूरश्रवा: - सर्वव्यापी होने के कारण दूर की बात भी सुन लेनेवाले, ४६८ विश्वसह: - भक्तजनों के सब अपराधों को कृपापूर्वक सहलेनेवाले, ४६९ ध्येय: - ध्यान करने योग्य, ४७० दु:स्वप्ननाशन: - चिन्तन करने मात्र से बुरे स्वप्नों का नाश करनेवाले, ४७१ उत्तारण: - संसार सागर से पार उतारनेवाले, ४७२ दुष्कृतिहा - पापों का नाश करनेवाले, ४७३ विज्ञेय: - जानने के योग्य, ४७४ दुस्सह: - जिनके वेग को सहन करना दूसरों के लिये अत्यन्त कठिन है ऐसे, ४७५ अभव: - संसार बन्धन से रहित अथवा अजन्मा।।५९।।

अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मी: किरीटी त्रिदशाधिप:।
विश्वगोप्ता विश्वकर्ता सुवीरो रुचिराङ्गद:।।६०।।

४७६ अनादि: - जिनका कोई आदि नहीं है ऐसे सबके कारणस्वरूप, ४७७ भूर्भुवो लक्ष्मीः - भूर्लोक और भुवर्लोक की शोभा, ४७८ किरीटी - मुकुटधारी, ४७९ त्रिदशाधिपः -देवताओं के स्वामी, ४८० विश्वगोप्ता - जगत्‌ के रक्षक, ४८१ विश्वकर्ता - संसार की सृष्टि करनेवाले, ४८२ सुवीर: - श्रेष्ठ वीर, ४८३ रुचिराङ्गद: - सुन्दर बाजूबंद धारण करने वाले ।।६०।।

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