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श्रीरामचरितमानस (किष्किन्धाकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2088
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भगवान श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट तथा बालि का भगवान के परमधाम को गमन


प्यासे और वन में भटके हुए वानरों को प्रभु की शक्ति द्वारा सागर तट पर पहुँचाना

लागि तृषा अतिसय अकुलाने।
मिलइ न जल घन गहन भुलाने॥
मन हनुमान कीन्ह अनुमाना।
मरन चहत सब बिनु जल पाना॥

 
इतनेमें ही सबको अत्यन्त प्यास लगी, जिससे सब अत्यन्त ही व्याकुल हो गये। किन्तु जल कहीं नहीं मिला। घने जंगलमें सब भुला गये। हनुमान्जीने मनमें अनुमान किया कि जल पिये बिना सब लोग मरना ही चाहते हैं॥२॥
 
चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा।
भूमि बिबर एक कौतुक पेखा।
चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं।
बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं।


उन्होंने पहाड़की चोटीपर चढ़कर चारों ओर देखा तो पृथ्वीके अंदर एक गुफामें उन्हें एक कौतुक (आश्चर्य) दिखायी दिया। उसके ऊपर चकवे, बगुले और हंस उड़ रहे हैं और बहुत-से पक्षी उसमें प्रवेश कर रहे हैं॥३॥

गिरि ते उतरि पवनसुत आवा।
सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा।।
आगे कै हनुमंतहि लीन्हा।
पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा॥


पवनकुमार हनुमान्जी पर्वतसे उतर आये और सबको ले जाकर उन्होंने वह गुफा दिखलायी। सबने हनुमान् जीको आगे कर लिया और वे गुफामें घुस गये, देर नहीं की॥४॥

दो०- दीख जाइ उपबन बर सर बिगसित बहु कंज।
मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज॥२४॥

अंदर जाकर उन्होंने एक उत्तम उपवन (बगीचा) और तालाब देखा, जिसमें बहुत-से कमल खिले हुए हैं। वहीं एक सुन्दर मन्दिर है, जिसमें एक तपोमूर्ति स्त्री बैठी है॥ २४॥

दूरि ते ताहि सबन्हि सिरु नावा।
पूछे निज वृत्तांत सुनावा॥
तेहिं तब कहा करहु जल पाना।
खाहु सुरस सुंदर फल नाना॥


दूरसे ही सबने उसे सिर नवाया और पूछनेपर अपना सब वृत्तान्त कह सुनाया। तब उसने कहा-जलपान करो और भाँति-भाँतिके रसीले सुन्दर फल खाओ॥१॥

मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए।
तासु निकट पुनि सब चलि आए॥
तेहिं सब आपनि कथा सुनाई।
मैं अब जाब जहाँ रघुराई॥


[आज्ञा पाकर] सबने स्नान किया, मीठे फल खाये और फिर सब उसके पास चले आये। तब उसने अपनी सब कथा कह सुनायी [और कहा--] मैं अब वहाँ जाऊँगी जहाँ श्रीरघुनाथजी हैं॥२॥

मूदहु नयन बिबर तजि जाहू।
पैहहु सीतहि जनि पछिताहू॥
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा।
ठाढ़े सकल सिंधु के तीरा॥


तुमलोग आँखें मूंद लो और गुफाको छोड़कर बाहर जाओ। तुम सीताजीको पा जाओगे, पछताओ नहीं (निराश न होओ)। आँखें मूंदकर फिर जब आँखें खोली तो सब वीर क्या देखते हैं कि सब समुद्रके तीरपर खड़े हैं॥३॥

सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा।
जाइ कमल पद नाएसि माथा॥
नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही।
अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही॥


और वह स्वयं वहाँ गयी जहाँ श्रीरघुनाथजी थे। उसने जाकर प्रभुके चरणकमलों में मस्तक नवाया और बहुत प्रकारसे विनती की। प्रभु ने उसे अपनी अनपायिनी (अचल) भक्ति दी॥४॥

दो०- बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस।
उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस॥२५॥


प्रभु की आज्ञा सिरपर धारणकर और श्रीरामजीके युगल चरणों को, जिनकी ब्रह्मा और महेश भी वन्दना करते हैं, हृदय में धारणकर वह (स्वयंप्रभा) बदरिकाश्रमको चली गयी॥२५॥

इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं।
बीती अवधि काज कछु नाहीं॥
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता।
बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता॥

यहाँ वानरगण मनमें विचार कर रहे हैं कि अवधि तो बीत गयी; पर काम कुछ न हुआ। सब मिलकर आपसमें बात करने लगे कि हे भाई! अब तो सीताजीकी खबर लिये बिना लौटकर भी क्या करेंगे?॥१॥

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