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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
अध्याय ४३
शिवसम्बन्धी तत्त्वज्ञान का वर्णन तथा उसकी महिमा, कोटिरुद्रसंहिता का माहात्म्य एवं उपसंहार
सूतजी ने कहा- ऋषियो! मैंने शिवज्ञान जैसा सुना है उसे बता रहा हूँ। तुम सब लोग सुनो, वह अत्यन्त गुह्य और परम मोक्षस्वरूप है। ब्रह्मा, नारद, सनकादि, मुनि व्यास तथा कपिल-इनके समाज में इन्हीं लोगों ने निश्चय करके ज्ञान का जो स्वरूप बताया है उसी को यथार्थ ज्ञान समझना चाहिये। सम्पूर्ण जगत् शिवमय है यह ज्ञान सदा अनुशीलन करने योग्य है। सर्वज्ञ विद्वान् को यह निश्चित रूप से जानना चाहिये कि शिव सर्वमय हैं। ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जो कुछ जगत् दिखायी देता है वह सब शिव ही हैं। वे महादेवजी ही शिव कहलाते हैं। जब उनकी इच्छा होती है, तब वे इस जगत् की रचना करते हैं। वे ही सबको जानते है उनको कोई नहीं जानता। वे इस जगत् की रचना करके स्वयं इसके भीतर प्रविष्ट होकर भी इससे दूर हैं। वास्तव में उनका इसमें प्रवेश नहीं हुआ है; क्योंकि वे निर्लिप्त, सच्चिदानन्दस्वरूप हैं। जैसे सूर्य आदि ज्योतियों का जल में प्रतिबिम्ब पड़ता है वास्तव में जल के भीतर उनका प्रवेश नहीं होता, उसी प्रकार साक्षात् शिव के विषय में समझना चाहिये। वस्तुत: तो वे स्वयं ही सब कुछ हैं। मतभेद ही अज्ञान है; क्योंकि शिव से भिन्न किसी द्वैत वस्तु की सत्ता नहीं है। सम्पूर्ण दर्शनों में मतभेद ही दिखाया जाता है परंतु वेदान्ती नित्य अद्वैत तत्त्व का वर्णन करते हैं। जीव परमात्मा शिव का ही अंश है; परंतु अविद्या से मोहित होकर अवश हो रहा है और अपने को शिव से भिन्न समझता है। अविद्या से मुक्त होनेपर वह शिव ही हो जाता है। शिव सबको व्याप्त करके स्थित हैं और सम्पूर्ण जन्तुओं में व्यापक हैं। वे जड़ और चेतन - सबके ईश्वर होकर स्वयं ही सबका कल्याण करते हैं। जो विद्वान् पुरुष वेदान्तमार्ग का आश्रय ले उनके साक्षात्कार के लिये साधना करता है उसे वह साक्षात्काररूप फल अवश्य प्राप्त होता है। व्यापक अग्नितत्त्व प्रत्येक काष्ठ में स्थित है; परंतु जो उस काष्ठ का मन्थन करता है, वही असंदिग्धरूप से अग्नि को प्रकट करके देखता है। उसी तरह जो बुद्धिमान् यहाँ भक्ति आदि साधनों का अनुष्ठान करता है उसे अवश्य शिव का दर्शन प्राप्त होता है इसमें संशय नहीं है। सर्वत्र केवल शिव हैं, शिव हैं, शिव हैं; दूसरी कोई वस्तु नहीं है। वे शिव भ्रम से ही सदा नाना रूपों में भासित होते हैं।
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