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शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय ४०

अनजान में शिवरात्रि-व्रत करने से एक भील पर भगवान् शंकर की अद्भुत कृपा

ऋषियों ने पूछा- सूतजी! पूर्वकाल में किसने इस उत्तम शिवरात्रि-व्रत का पालन किया था और अनजान में भी इस व्रत का पालन करके किसने कौन-सा फल प्राप्त किया था?

सूतजीने कहा- ऋषियो! तुम सब लोग सुनो! मैं इस विषयमें एक निषाद का प्राचीन इतिहास सुनाता हूँ, जो सब पापों का नाश करनेवाला है। पहलेकी बात है-किसी वन में एक भील रहता था, जिसका नाम था- गुरुद्रुह। उसका कुटुम्ब बड़ा था तथा वह बलवान् और क्रूर स्वभाव का होने के साथ ही क्रूरतापूर्ण कर्म में तत्पर रहता था। वह प्रतिदिन वन में जाकर मृगों को मारता और वहीं रहकर नाना प्रकार की चोरियाँ करता था। उसने बचपन से ही कभी कोई शुभ कर्म नहीं किया था। इस प्रकार वन में रहते हुए उस दुरात्मा भील का बहुत समय बीत गया। तदनन्तर एक दिन बड़ी सुन्दर एवं शुभकारक शिवरात्रि आयी। किंतु वह दुरात्मा घने जंगल में निवास करने वाला था, इसलिये उस व्रत को नहीं जानता था। उसी दिन उस भील के माता-पिता और पत्नी ने भूखसे पीड़ित होकर उससे याचना की-  'वनेचर! हमें खानेको दो।'

उनके इस प्रकार याचना करने पर वह तुरंत धनुष लेकर चल दिया और मृगों के शिकार के लिये सारे वन में घूमने लगा। दैवयोग से उसे उस दिन कुछ भी नहीं मिला और सूर्य अस्त हो गया। इससे उसको बड़ा दुःख हुआ और वह सोचने लगा-'अब मैं क्या करूँ! कहाँ जाऊँ? आज तो कुछ नहीं मिला। घरमें जो बच्चे हैं उनका तथा माता-पिता का क्या होगा? मेरी जो पत्नी है उसकी भी क्या दशा होगी? अत: मुझे कुछ लेकर ही घर जाना चाहिये; अन्यथा नहीं।' ऐसा सोचकर वह व्याध एक जलाशय के समीप पहुँचा और जहाँ पानी में उतरने का घाट था, वहाँ जाकर खड़ा हो गया। वह मन-ही-मन यह विचार करता आ कि 'यहाँ कोई-न-कोई जीव पानी पीने के लिये अवश्य आयेगा। उसीको मारकर कृतकृत्य हो उसे साथ लेकर प्रसन्नतापूर्वक घर को जाऊँगा।' ऐसा निश्चय करके वह व्याध एक बेल के पेड़ पर चढ़ गया और वहीं जल साथ लेकर बैठ गया। उसके मन में केवल यही चिन्ता थी कि कब कोई जीव आयेगा और कब मैं उसे मारूँगा। इसी प्रतीक्षामें भूख-प्यास से पीड़ित हो वह बैठा रहा। उस रात के पहले पहर में एक प्यासी हरिणी वहाँ आयी, जो चकित होकर जोर-जोर से चौकड़ी भर रही थी। ब्राह्मणो! उस मृगी को देखकर व्याध को बड़ा हर्ष हुआ और उसने तुरंत ही उसके वध के लिये अपने धनुष पर एक बाण का संधान किया। ऐसा करते हुए उसके हाथ के धक्के से थोड़ा-सा जल और बिल्वपत्र नीचे गिर पड़े। उस पेड़ के नीचे शिवलिंग था। उक्त जल और बिल्वपत्र से शिव की प्रथम प्रहर की पूजा सम्पन्न हो गयी। उस पूजा के माहात्म्य से उस व्याध का बहुत-सा पातक तत्काल नष्ट हो गया। वहाँ होनेवाली खड़खड़ाहट की आवाज को सुनकर हरिणी ने भय से ऊपर की ओर देखा। व्याध को देखते ही वह व्याकुल हो गयी और बोली-मृगीने कहा-व्याध! तुम क्या करना चाहते हो मेरे सामने सच-सच बताओ।

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