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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


जननो जनजन्मादि: प्रीतिमान्नीतिमान्धव:।
वसिष्ठ: कश्यपो भानुर्भीमो भीमपराक्रम:।।६१।।

४८४ जनन: - प्राणिमात्र को जन्म देनेवाले, ४८५ जनजन्मादि: - जन्म लेने-वालों के जन्म के मूल कारण, ४८६ प्रीतिमान् - प्रसन्न, ४८७ नीतिमान् - सदा नीतिपरायण, ४८८ धव: - सबके स्वामी, ४८९ वसिष्ठ: - मन और इन्द्रियों को अत्यन्त वश में रखनेवाले अथवा वसिष्ठ ऋषिरूप, ४९० कश्यप: - द्रष्टा अथवा कश्यप मुनिरूप, ४९१ भानु: - प्रकाशमान अथवा सूर्यरूप, ४९२ भीम: - दुष्टों को भय देने वाले, ४१३ भीमपराक्रम: - अतिशय भयदायक पराक्रम से युक्त।।६१।।

प्रणव: सत्पथाचारो महाकोशो महाधन:।
जन्माधिपो महादेव: सकलागमपारग:।।६२।।

४९४ प्रणव: - ओंकारस्वरूप, ४९५ सत्पथाचार: - सत्पुरुषों के मार्ग पर चलनेवाले, ४९६ महाकोश: - अन्नमयादि पाँचों कोशों को अपने भीतर धारण करने के कारण महाकोशरूप, ४९७ महाधन: - अपरिमित ऐश्वर्यवाले अथवा कुबेर को भी धन देने के कारण महाधनवान् , ४९८ जन्माधिप: - जन्म  (उत्पादन) रूपी कार्य के अध्यक्ष ब्रह्मा, ४१९ महादेव: - सर्वोत्कृष्ट देवता, ५०० सकलागमपारग: - समस्त शास्त्रों के पारंगत विद्वान्।।६२।।

तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा विभुर्विश्वविभूषण:।
ऋषिर्ब्राह्मण ऐश्वर्यजन्ममृत्युजरातिग:।।६३।।

५०१ तत्त्वम् - यथार्थ तत्त्वरूप, ५०२ तत्त्ववित् - यथार्थ तत्त्व को पूर्णतया जाननेवाले, ५०३ एकात्मा - अद्वितीय आत्मरूप, ५०४ विभु: - सर्वत्र व्यापक, ५०५ विश्वभूषण: - सम्पूर्ण जगत्‌ को उत्तम गुणों से विभूषित करनेवाले, ५०६ ऋषि: - मन्त्रद्रष्टा, ५०७ ब्राह्मण: - ब्रह्मवेत्ता, ५०८ ऐश्वर्यजन्ममृत्युजरातिग: - ऐश्वर्य, जन्म, मृत्यु और जरा से अतीत।।६३।।

पञ्चयज्ञसमुत्पतिर्विश्वेशो विमलोदय:।
आत्मयोनिरनाद्यन्तो वत्सलो भक्तलोकधृक्।।६४।।

५०९ पज्चयज्ञसमुत्पत्ति: - पंच महायज्ञों की उत्पत्ति के हेतु, ५१० विश्वेशः - विश्वनाथ, ५११ विमलोदयः - निर्मल अभ्युदय की प्राप्ति करानेवाले धर्मरूप, ५१२ आत्मयोनि: - स्वयम्भू, ५१३ अनाद्यन्त: - आदि-अन्त से रहित, ५१४ वत्सलः - भक्तों के प्रति वात्सल्य-स्नेह से युक्त, ५१५ भक्तलोकधृक् - भक्तजनों के आश्रय।।६४।।

गायत्रीवल्लभ: प्रांशुर्विश्वावास: प्रभाकर:।
शिशुर्गिरिरत: सम्राट् सुषेण: सुरशत्रुहा।।६५।।

५१६ गायत्रीवल्लभ: - गायत्री मन्त्र के प्रेमी, ५१७ प्रांशु: - ऊँचे शरीरवाले, ५१८ विश्वावासः - सम्पूर्ण जगत्‌ के आवासस्थान, ५१९ प्रभाकरः - सूर्यरूप, ५२० शिशु: - बालकरूप, ५२१ गिरिरतः - कैलास पर्वत पर रमण करनेवाले, ५२२ सम्राट् - देवेश्वर्रो के भी ईश्वर, ५२३ सुषेण: सुरशत्रुहा - प्रमथगणों की सुन्दर सेना से युक्त तथा देवशत्रुओं का संहार करनेवाले।।६५।।

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