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शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय २७-२८

वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राकट्य की कथा तथा महिमा

सूतजी कहते हैं- अब मैं वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग का पापहारी माहात्म्य बताऊंगा। सुनो! राक्षसराज रावण जो बड़ा अभिमानी और अपने अहंकार को प्रकट करनेवाला था, उत्तम पर्वत कैलास पर भक्तिभाव से भगवान् शिव की आराधना कर रहा था। कुछ कालतक आराधना करने पर जब महादेवजी प्रसन्न नहीं हुए, तब वह शिव की प्रसन्नता के लिये दूसरा तप करने लगा। पुलस्त्यकुलनन्दन श्रीमान् रावण ने सिद्धि के स्थानभूत हिमालय पर्वत से दक्षिण वृक्षों से भरे हुए वन में पृथ्वी पर एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदकर उसमें अग्नि की स्थापना की और उसके पास ही भगवान् शिव को स्थापित करके हवन आरम्भ किया। ग्रीष्म-ऋतु में वह पाँच अग्नियों के बीच में बैठता, वर्षा-ऋतु में खुले मैदान में चबूतरे पर सोता और शीतकाल में जल के भीतर खड़ा रहता। इस तरह तीन प्रकार से उसकी तपस्या चलती थी। इस रीति से रावण ने बहुत तप किया तो भी दुरात्माओं के लिये शिव को रिझाना कठिन है? वे परमात्मा महेश्वर उस पर प्रसन नहीं हुए। तब महामनस्वी राक्षसराज रावण ने अपना मस्तक काटकर शंकरजी का पूजन आरम्भ किया। विधिपूर्वक शिव की पूजा करके वह अपना एक-एक सिर काटता और भगवान्‌ को समर्पित कर देता था। इस तरह उसने क्रमश: अपने नौ सिर काट डाले। जब एक ही सिर बाकी रह गया, तब भक्तवत्सल भगवान् शंकर संतुष्ट एवं प्रसन्न हो वहीं उसके सामने प्रकट हो गये। भगवान् शिव ने उसके सभी मस्तकों को पूर्ववत् नीरोग करके उसे उसकी इच्छा के अनुसार अनुपम उत्तम बल प्रदान किया। भगवान् शिव का कृपाप्रसाद पाकर राक्षस रावण ने नतमस्तक हो हाथ जोड़कर उनसे कहा-'देवेश्वर! प्रसन्न होइये। मैं आपको लंका में ले चलता हूँ। आप मेरे इस मनोरथ को सफल कीजिये। मैं आपकी शरण में आया हूँ।'

रावण के ऐसा कहने पर भगवान् शंकर बड़े संकट में पड़ गये और अनमने होकर बोले- 'राक्षसराज! मेरी सारगर्भित बात सुनो। तुम मेरे इस उत्तम लिंग को भक्तिभाव से अपने घर को ले जाओ। परंतु जब तुम इसे कहीं भूमिपर रख दोगे, तब यह वहीं सुस्थिर हो जायगा, इसमें संदेह नहीं है। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो।'

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