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शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय २४-२५

त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग के प्रसंग में महर्षि गौतम के द्वारा किये गये परोपकार की कथा, उनका तप के प्रभाव से अक्षय जल प्राप्त करके ऋषियों की अनावृष्टि के कष्ट से रक्षा करना; ऋषियों का छलपूर्वक उन्हें गोहत्या में फँसाकर आश्रम से निकालना और शुद्धि का उपाय बताना

सूतजी कहते हैं- मुनिवरो! सुनो, मैंने सद्‌गुरु व्यासजी के मुख से जैसी सुनी है उसी रूप में एक पापनाशक कथा तुम्हें सुना रहा हूँ। पूर्वकाल की बात है गौतम नाम से विख्यात एक श्रेष्ठ ऋषि रहते थे, जिनकी परम धार्मिक पत्नी का नाम अहल्या था। दक्षिण-दिशा में जो ब्रह्मगिरि है वहीं उन्होंने दस हजार वर्षों तक तपस्या की थी। उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षियो! एक समय वहाँ सौ वर्षों तक बड़ा भयानक अवर्षण हो गया। सब लोग महान् दुःख में पड़ गये। इस भूतल पर कहीं गीला पत्ता भी नहीं दिखायी देता था। फिर जीवों का आधारभूत जल कहाँ से दृष्टिगोचर होता। उस समय मुनि, मनुष्य, पशु, पक्षी और मृग-सब वहाँ से दसों दिशाओं को चले गये। तब गौतम ऋषि ने छ: महीने तक तप करके वरुण को प्रसन्न किया। वरुण ने प्रकट होकर वर माँगने को कहा- ऋषि ने वृष्टि के लिये प्रार्थना की। वरुणने कहा- 'देवताओं के विधान के विरुद्ध वृष्टि न करके मैं तुम्हारी इच्छा के अनुसार तुम्हें सदा अक्षय रहनेवाला जल देता हूँ। तुम एक गड्ढा तैयार करो।'

उनके ऐसा कहने पर गौतम ने एक हाथ गहरा गड्ढा खोदा और वरुण ने उसे दिव्य जल के द्वारा भर दिया तथा परोपकार से सुशोभित होनेवाले मुनिश्रेष्ठ गौतम से कहा- 'महामुने! कभी क्षीण न होनेवाला यह जल तुम्हारे लिये तीर्थरूप होगा और पृथ्वीपर तुम्हारे ही नाम से इसकी ख्याति होगी। यहाँ किये हुए दान, होम, तप, देवपूजन तथा पितरों का श्राद्ध-सभी अक्षय होंगे।'

ऐसा कहकर उन महर्षि से प्रशंसित हो वरुणदेव अन्तर्धान हो गये। उस जल के द्वारा दूसरों का उपकार करके महर्षि गौतम को भी बड़ा सुख मिला। महात्मा पुरुष का आश्रय मनुष्यों के लिये महत्त्व की ही प्राप्ति करानेवाला होता है। महान् पुरुष ही महात्मा के उस स्वरूप को देखते और समझते है दूसरे अधम मनुष्य नहीं। मनुष्य जैसे पुरुषका सेवन करता है? वैसा ही फल पाता है। महान् पुरुषकी सेवासे महत्ता मिलती है और क्षुद्रकी सेवासे क्षुद्रता। उत्तम पुरुषोंका यह स्वभाव ही है कि वे दूसरोंके दुःखको नहीं सहन कर पाते। अपनेको दुःख प्राप्त हो जाय, इसे भी स्वीकार कर लेते हैं, किंतु दूसरों के दुःख का निवारण ही करते हैं। दयालु, अभिमानशून्य, उपकारी और जितेन्द्रिय-ये पुण्य के चार खंभे हैं जिनके आधार पर यह पृथ्वी टिकी हुई है।

उत्तमानां स्वभावोऽयं परदुःखासहिष्णुता।।
स्वयं दुःखं च सम्प्राप्तं मन्यतेऽन्यस्य वार्यते।
दयालुरमदस्पर्श उपकारी जितेन्द्रिय:।।
एतैश्च पुण्यस्तम्भैस्तु चतुर्भिर्धार्यते मही।

(शि० पु० कोटि० सं० २४ । २४-२६)

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