ई-पुस्तकें >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
|
0 |
भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
अब मैं भीमशंकर नामक ज्योतिर्लिंग का माहात्म्य कहूँगा। कामरूप देश में लोकहित की कामना से साक्षात् भगवान् शंकर ज्योतिर्लिंग के रूप में अवतीर्ण हुए थे। उनका वह स्वरूप कल्याण और सुख का आश्रय है। ब्राह्मणो! पूर्वकाल में एक महापराक्रमी राक्षस हुआ था, जिसका नाम भीम था। वह सदा धर्म का विध्वंस करता और समस्त प्राणियों को दुःख देता था। वह महाबली राक्षस कुम्भकर्ण के वीर्य और कर्कटी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था तथा अपनी माता के साथ सह्य पर्वतपर निवास करता था। एक दिन समस्त लोकों को दुःख देनेवाले भयानक पराक्रमी दुष्ट भीम ने अपनी माता से पूछा- 'माँ! मेरे पिताजी कहाँ हैं? तुम अकेली क्यों रहती हो? मैं यह सब जानना चाहता हूँ। अत: यथार्थ बात बताओ।'
कर्कटी बोली- बेटा! रावण के छोटे भाई कुम्भकर्ण तेरे पिता थे। भाईसहित उस महाबली वीर को श्रीराम ने मार डाला। मेरे पिता का नाम कर्कट और माता का नाम पुष्कसी था। विराध मेरे पति थे जिन्हें पूर्वकालमें रामने मार डाला। अपने प्रिय स्वामी के मारे जानेपर मैं अपने माता-पिता के पास रहती थी। एक दिन मेरे माता-पिता अगस्ल मुनि के शिष्य सुतीक्षा को अपना आहार बनाने के लिये गये। वे बड़े तपस्वी और महात्मा थे। उन्होंने कुपित होकर मेरे माता-पिता को भस्म कर डाला। वे दोनों मर गये। तबसे मैं अकेली होकर बड़े दुःख के साथ इस पर्वतपर रहने लगी। मेरा कोई अवलम्ब नहीं रह गया। मैं असहाय और दुःख से आतुर होकर यहाँ निवास करती थी। इसी समय महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न राक्षस कुम्भकर्ण जो रावण के छोटे भाई थे, यहाँ आये। उन्होंने बलात् मेरे साथ समागम किया। फिर वे मुझे छोड़कर लंका चले गये। तत्पश्चात् तुम्हारा जन्म हुआ। तुम भी पिता के समान ही महान् बलवान् और पराक्रमी हो। अब मैं तुम्हारा ही सहारा लेकर यहाँ कालक्षेप करती हूँ।
सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो! कर्कटी की यह बात सुनकर भयानक पराक्रमी भीम कुपित हो यह विचार करने लगा कि 'मैं विष्णु के साथ कैसा बर्ताव करूँ? इन्होंने मेरे पिता को मार डाला। मेरे नाना-नानी भी उनके भक्त के हाथ से मारे गये। विराध को भी इन्होंने ही मार डाला और इस प्रकार मुझे बहुत दुःख दिया। यदि मैं अपने पिता का पुत्र हूँ तो श्रीहरि को अवश्य पीड़ा दूँगा।'
ऐसा निश्चय करके भीम महान् तप करने के लिये चला गया। उसने ब्रह्माजी की प्रसन्नता के लिये एक हजार वर्षों तक महान् तप किया। तपस्या के साथ-साथ वह मन-ही-मन इष्टदेव का ध्यान किया करता था। तब लोकपितामह ब्रह्मा उसे वर देने के लिये गये और इस प्रकार बोले।
|