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शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2080
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव के विभिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन...

मुने! अब मैं शंकरजी के एकादश श्रेष्ठ अवतारों का वर्णन करता हूँ, सुनो। उन्हें श्रवण करने से असत्यादिजनित बाधा पीड़ा नहीं पहुँचा सकती। पूर्वकाल की बात है एक बार इन्द्र आदि समस्त देवता दैत्यों से पराजित हो गये। तब वे भयभीत हो अपनी पुरी अमरावती को छोड़कर भाग खड़े हुए। यों दैत्यों द्वारा अत्यन्त पीड़ित हुए वे सभी देवता कश्यपजी के पास गये। वहाँ उन्होंने परम व्याकुलतापूर्वक हाथ जोड़ एवं मस्तक झुकाकर उनके चरणों में अभिवादन किया और उनका भलीभांति स्तवन करके आदरपूर्वक अपने आने का कारण प्रकट किया तथा दैत्यों द्वारा पराजित होने से उत्पन्न हुए अपने सारे दुःखों को कह सुनाया। तात! तब उनके पिता कश्यपजी देवताओं की उस कष्ट-कहानी को सुनकर अधिक दुःखी नहीं हुए; क्योंकि उनकी बुद्धि शिवजी में आसक्त थी। मुने! उन शान्तबुद्धि मुनि ने धैर्य धारणकर के देवताओं को आश्वासन दिया और स्वयं परम हर्षपूर्वक विश्वनाथपुरी काशी को चल पड़े। वहाँ पहुँचकर उन्होंने गंगाजी के जल में स्नान करके अपना नित्य-नियम पूरा किया और फिर आदरपूर्वक उमासहित सर्वेश्वर भगवान् विश्वनाथ की भलीभांति अर्चना की। तदनन्तर शम्भुदर्शन के उद्देश्य से एक शिवलिंग की स्थापना करके वे देवताओं के हितार्थ परम प्रसन्नतापूर्वक घोर तप करने लगे। मुने! शिवजी के चरणकमलों में आसक्त मनवाले धैर्यशाली मुनिवर कश्यप को जब यों तप करते हुए बहुत अधिक समय व्यतीत हो गया, तब सत्पुरूषों के गतिस्वरूप भगवान् शंकर अपने चरणों में तल्लीन मनवाले कश्यप ऋषि को वर देने के लिये वहाँ प्रकट हुए। भक्तवत्सल महेश्वर परम प्रसन्न तो थे ही, अत: वे अपने भक्त मुनिवर कश्यपसे बोले-'वर माँगो।' उन महेश्वर को देखते ही प्रसन्न बुद्धिवाले देवताओं के पिता कश्यपजी हर्षमग्न हो गये और हाथ जोड़कर उनके चरणों में नमस्कार करके स्तुति करते हुए यों बोले- 'महेश्वर! मैं सर्वथा आपका शरणागत हूँ। स्वामिन्! देवताओं के दुःख का विनाश करके मेरी अभिलाषा पूर्ण कीजिये। देवेश! मैं पुत्रों के दुःख से विशेष दुःखी हूँ, अत: ईश! मुझे सुखी कीजिये; क्योंकि आप देवताओं के सहायक हैं। नाथ! महाबली दैत्यों ने देवताओं और यक्षों को पराजित कर दिया है इसलिये शम्भो! आप मेरे पुत्ररूप से प्रकट होकर देवताओंके लिये आनन्ददाता बनिये।'

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