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शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2080
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव के विभिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन...

ईश्वरने कहा- गृहपते! जान पड़ता है तुम वजधारी इन्द्र से डर गये हो। वत्स! तुम भयभीत मत होओ; क्योंकि मेरे भक्त पर इन्द्र और वज्र की कौन कहे, यमराज भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। यह तो मैंने तुम्हारी परीक्षा ली है और मैंने ही तुम्हें इन्द्ररूप धारण करके डराया है। भद्र! अब मैं तुम्हें वर देता हूँ-आज से तुम अग्निपद के भागी होओगे। तुम समस्त देवताओं के लिये वरदाता बनोगे। अग्ने! तुम समस्त प्राणियों के अंदर जठराग्नि रूप से विचरण करोगे। तुम्हें दिक्पालरूप से धर्मराज और इन्द्र के मध्य में राज्य की प्राप्ति होगी। तुम्हारे द्वारा स्थापित यह शिवलिंग तुम्हारे नाम पर 'अग्नीश्वर' नाम से प्रसिद्ध होगा। यह सब प्रकार के तेजों की वृद्धि करनेवाला होगा। जो लोग इस अनीश्वर-लिंग के भक्त होंगे उन्हें बिजली और अग्नि का भय नहीं रह जायगा, अग्निमान्द्य नामक रोग नहीं होगा और न कभी उनकी अकालमृत्यु ही होगी। काशीपुरी में स्थित सम्पूर्ण समृद्धियों के प्रदाता अनीश्वर की भलीभांति अर्चना करनेवाला भक्त यदि प्रारब्धवश किसी अन्य स्थान मं् भी मृत्यु को प्राप्त होगा तो भी वह वह्निलोक में प्रतिष्ठित होगा।

नन्दीश्वरजी कहते हैं- मुने! यों कहकर शिवजी ने गृहपति के बन्धुओं को बुलाकर उनके माता-पिता के सामने उस अग्नि का दिक्पति पदपर अभिषेक कर दिया और स्वयं उसी लिंग में समा गये। तात! इस प्रकार मैंने तुमसे परमात्मा शंकर के गृहपति नामक अग्न्यावतार का, जो दुष्टों को पीड़ित करनेवाला है, वर्णन कर दिया। जो सुदृढ़ पराक्रमी जितेन्द्रिय पुरुष अथवा सत्त्वसम्पन्न स्त्रियाँ अग्नि प्रवेश कर जाती है वे सब-के-सब अग्नि सरीखे तेजस्वी होते हैं। इसी प्रकार जो ब्राह्मण अग्निहोत्र-परायण, ब्रह्मचारी तथा पंचाग्नि का सेवन करनेवाले हैं वे अग्नि के समान वर्चस्वी होकर अग्निलोक में विचरते हैं। जो शीतकाल में शीतनिवारण के निमित्त बोझ-की-बोझ लकड़ियाँ दान करता है अथवा जो अग्नि की इष्टि करता है, वह अग्नि के संनिकट निवास करता है। जो श्रद्धापूर्वक किसी अनाथ मृतक का अग्निसंस्कार कर देता है अथवा स्वयं शक्ति न होनेपर दूसरे को प्रेरित करता है वह अग्निलोक में प्रशंसित होता है। द्विजातियों के लिये परम कल्याणकारक एक अग्नि ही है। वही निश्चितरूप से गुरू, देवता, व्रत, तीर्थ अर्थात् सब कुछ है। जितनी अपावन वस्तुएँ हैं, वे सब अग्नि का संसर्ग होने से उसी क्षण पावन हो जाती हैं; इसीलिये अग्नि को पावक कहा जाता है। यह शम्भु की प्रत्यक्ष तेजोमयी दहनात्मिका मूर्ति है, जो सृष्टि रचनेवाली, पालन करनेवाली और संहार करनेवाली है। भला, इसके बिना कौन-सी वस्तु दृष्टिगोचर हो सकती है। इनके द्वारा भक्षण किये इए धूप, दीप, नैवेद्य, दूध, दही, घी और खाँड़ आदि का देवगण स्वर्ग में सेवन करते हैं।

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