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शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2080
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव के विभिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन...

अध्याय ८-१३

कालभैरव का माहास्थ्य, विश्वानर की तपस्या और शिवजी का प्रसन्न होकर उनकी पत्नी शुचिष्मती के गर्भ से उनके पुत्ररूप में प्रकट होने का उन्हें वरदान देना

तदनन्तर भगवान् शंकर के भैरवावतार का वर्णन करके नन्दीश्वर ने कहा- महामुने! परमेश्वर शिव उत्तमोत्तम लीलाएँ रचनेवाले तथा सत्पुरूषों के प्रेमी हैं। उन्होंने मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को भैरवरूप से अवतार लिया था। इसलिये जो मनुष्य मार्गशीर्ष-मास की कृष्णाष्टमी को कालभैरव के संनिकट उपवास कर के रात्रि में जागरण करता है वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य अन्यत्र भी भक्तिपूर्वक जागरणसहित इस व्रत का अनुष्ठान करेगा, वह भी महापापों से मुक्त होकर सद्‌गति को प्राप्त हो जायगा। प्राणियों के लाखों जन्मों में किये हुए जो पाप हैं वे सब-के-सब कालभैरव के दर्शन से निर्मल हो जाते हैं। जो मूर्ख कालभैरव के भक्तों का अनिष्ट करता है वह इस जन्म में दुःख भोगकर पुन: दुर्गति को प्राप्त होता है। जो लोग विश्वनाथ के तो भक्त हैं परंतु कालभैरव की भक्ति नहीं करते, उन्हें महान् दुःख की प्राप्ति होती है। काशी में तो इसका विशेष प्रभाव पड़ता है। जो मनुष्य वाराणसी में निवास करके कालभैरव का भजन नहीं करता, उसके पाप शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भांति बढ़ते रहते हैं। जो काशी में प्रत्येक भौमवार की कृष्णाष्टमी के दिन कालराज का भजन-पूजन नहीं करता, उसका पुण्य कृष्णपक्ष के चन्द्रमा के समान क्षीण हो जाता है।

तदनन्तर नन्दीश्वर ने वीरभद्र तथा शरभावतार का वृत्तान्त सुनाकर कहा- ब्रह्मपुत्र! भगवान् शिव जिस प्रकार प्रसन्न होकर विश्वानर मुनि के घर अवतीर्ण हुए थे, शशिमौलि के उस चरित को तुम प्रेमपूर्वक श्रवण करो। उस समय वे तेज की निधि अग्निरूप सर्वात्मा परम प्रभु शिव अग्निलोक के अधिपतिरूप से गृहपति नाम से अवतीर्ण हुए थे। पूर्वकाल की बात है नर्मदा के रमणीय तटपर नर्मपुर नाम का एक नगर था। उसी नगर में विश्वानर नाम के एक मुनि निवास करते थे। उनका जन्म शाण्डिल्य गोत्रमें हुआ था। वे परम पावन, पुण्यात्मा, शिवभक्त, ब्रह्मतेज के निधि और जितेन्द्रिय थे। ब्रह्मचर्याश्रम में उनकी बड़ी निष्ठा थी। वे सदा ब्रह्मयज्ञ में तत्पर रहते थे। फिर उन्होंने शुचिष्मती नाम की एक सद्‌गुणवती कन्या से विवाह कर लिया और वे ब्राह्मणोचित कर्म करते हुए देवता तथा पितरों को प्रिय लगनेवाला जीवन बिताने लगे। इस प्रकार जब बहुत-सा समय व्यतीत हो गया, तब उन ब्राह्मण की भार्या शुचिष्मती, जो उत्तम व्रत का पालन करनेवाली थी, अपने पतिसे बोली- 'प्राणनाथ! स्त्रियों के योग्य जितने आनन्दप्रद भोग हैं उन सबको मैंने आपकी कृपा से आपके साथ रहकर भोग लिया; परंतु नाथ! मेरे हृदय में एक लालसा चिरकाल से वर्तमान है और वह गृहस्थों के लिये उचित भी है उसे आप पूर्ण करने की कृपा करें। स्वामिन्! यदि मैं वर पाने के योग्य हूँ और आप मुझे वर देना चाहते हैं तो मुझे महेश्वर-सरीखा पुत्र प्रदान कीजिये। इसके अतिरिक्त मैं दूसरा वर नहीं चाहती।'

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