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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

दक्ष ने कहा- ओ नीच! तुमने यह क्या किया? तुमने झूठ-मूठ साधुओं का बाना पहन रखा है। इसी के द्वारा ठगकर हमारे भोले-भाले बालकों को जो तुमने भिक्षुओं का मार्ग दिखाया है यह अच्छा नहीं किया। तुम निर्दय और शठ हो। इसीलिये तुमने हमारे इन बालकों के, जो अभी ऋषि-ऋण, देव-ऋण, पितृ-ऋण (ब्रह्मचर्यपालन पूर्वक वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय से ऋषि-ऋण, यज्ञ और पूजा आदि से देव-ऋण तथा पुत्र के उत्पादन से पितृ-ऋण का निवारण होता है।) से मुक्त नहीं हो पाये थे, लोक और परलोक दोनों के श्रेय का नाश कर डाला। जो पुरुष इन तीनों ऋणों को उतारे बिना ही मोक्ष की इच्छा मन में लिये माता-पिता को त्यागकर घर से निकल जाता है - संन्यासी हो जाता है वह अधोगति को प्राप्त होता है। तुम निर्दय और बड़े निर्लज्ज हो। बच्चों की बुद्धि में भेद पैदा करनेवाले हो और अपने सुयश को स्वयं ही नष्ट कर रहे हो। मूढ़मते! तुम भगवान् विष्णु के पार्षदों में व्यर्थ ही घूमते-फिरते हो। अधमाधम! तुमने बारंबार मेरा अमंगल किया है। अत: आज से तीनों लोको में विचरते हुए तुम्हारा पैर कहीं स्थिर नहीं रहेगा अथवा कहीं भी तुम्हें ठहरने के लिये सुस्थिर ठौर-ठिकाना नहीं मिलेगा।'

नारद! यद्यपि तुम साधु पुरुषों द्वारा सम्मानित हो, तथापि उस समय दक्ष ने शोकवश तुम्हें वैसा शाप दे दिया। वे ईश्वर की इच्छा को नहीं समझ सके। शिव की माया ने उन्हें अत्यन्त मोहित कर दिया था। मुने। तुमने उस शाप को चुपचाप ग्रहण कर लिया और अपने चित्त में विकार नहीं आने दिया। यही ब्रह्मभाव है। ईश्वर कोटि के महात्मा पुरुष स्वयं शाप को मिटा देने में समर्थ होने पर भी उसे सह लेते हैं।

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