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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

 

अध्याय १३

ब्रह्माजी की आज्ञा से दक्ष द्वारा मैथुनी सृष्टि का आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों और शबलाश्वों को निवृत्तिमार्ग में भेजने के कारण दक्ष का नारद को शाप देना

ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! प्रजापति दक्ष अपने आश्रम पर जाकर मेरी आज्ञा पा हर्षभरे मन से नाना प्रकार की मानसिक सृष्टि करने लगे। उस प्रजासृष्टि को बढ़ती हुई न देख प्रजापति दक्ष ने अपने पिता मुझ ब्रह्मा से कहा।

दक्ष बोले- ब्रह्मन्! तात! प्रजानाथ! प्रजा बढ़ नहीं रही है। प्रभो! मैंने जितने जीवों की सृष्टि की थी, वे सब उतने ही रह गये हैं। प्रजानाथ! मैं क्या करूँ? जिस उपाय से ये जीव अपने-आप बढ़ने लगें, वह मुझे बताइये। तदनुसार मैं प्रजा की सृष्टि करूँगा, इसमें संशय नहीं है।

ब्रह्माजी ने (मैंने) कहा- तात! प्रजापते दक्ष! मेरी उत्तम बात सुनो और उसके अनुसार कार्य करो। सुरश्रेष्ठ भगवान् शिव तुम्हारा कल्याण करेंगे। प्रजेश! प्रजापति पंचजन (वीरण) की जो परम सुन्दरी पुत्री असिक्नी है उसे तुम पत्नी रूप से ग्रहण करो। स्त्री के साथ मैथुन-धर्म का आश्रय ले तुम पुन: इस प्रजासर्ग को बढ़ाओ। असिक्नी-जैसी कामिनी के गर्भ से तुम बहुत-सी संतानें उत्पन्न कर सकोगे।

तदनन्तर मैथुन-धर्म से प्रजा की उत्पत्ति करने के उद्देश्य से प्रजापति दक्ष ने मेरी आज्ञा के अनुसार वीरण प्रजापति की पुत्री के साथ विवाह किया। अपनी पत्नी वीरिणी के गर्भ से प्रजापति दक्ष ने दस हजार पुत्र उत्पन्न किये, जो हर्यश्व कहलाये। मुने! वे सब-के-सब पुत्र समान धर्म का आचरण करनेवाले हुए। पिता की भक्ति में तत्पर रहकर वे सदा वैदिक मार्ग पर ही चलते थे। एक समय पिता ने उन्हें प्रजा की सृष्टि करने का आदेश दिया। तात! तब वे सभी दाक्षायण नामधारी पुत्र सृष्टि के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये पश्चिम दिशा की ओर गये। वहाँ नारायण-सर नामक परम पावन तीर्थ है जहाँ दिव्य सिन्धु नद और समुद्र का संगम हुआ है। उस तीर्थजल का ही निकट से स्पर्श करते उनका अन्तःकरण शुद्ध एवं ज्ञान से सम्पन्न हो गया। उनकी आन्तरिक मलराशि धुल गयी और वे परमहंस-धर्म में स्थित हो गये। दक्ष के वे सभी पुत्र पिता के आदेश में बँधे हुए थे। अत: मन को सुस्थिर करके प्रजा की वृद्धि के लिये वहाँ तप करने लगे। वे सभी सत्पुरुषों में श्रेष्ठ थे।

नारद! जब तुम्हें पता लगा कि हर्यश्वगण सृष्टि के लिये तपस्या कर रहे हैं, तब भगवान् लक्ष्मीपति के हार्दिक अभिप्राय को जानकर तुम स्वयं उनके पास गये और आदरपूर्वक यों बोले-'दक्षपुत्र हर्यश्वगण! तुम लोग पृथ्वी का अन्त देखे बिना सृष्टि-रचना करने के लिये कैसे उद्यत हो गये?'

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