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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

तत्पश्चात् परमेश्वर भगवान् महेश प्रसन्न हो अपने दिव्य शब्दमय रूप को प्रकट करके हँसते हुए खड़े हो गये। अकार उनका मस्तक और आकार ललाट है। इकार दाहिना और ईकार बायाँ नेत्र है। उकार को उनका दाहिना और ऊकार को बायाँ कान बताया जाता है। ऋकार उन परमेश्वर का दायाँ कपोल है और ऋकार बायाँ। लृ और लृ ये उनकी नासिका के दोनों छिद्र हैं। एकार उन सर्वव्यापी प्रभु का ऊपरी ओष्ठ है और ऐकार अधर। ओकार तथा औकार- ये दोनों क्रमश: उनकी ऊपर और नीचे की दो दन्तपक्तियाँ हैं। 'अं' और 'अः' उन देवाधिदेव शूलधारी शिव के दोनों तालु हैं। क आदि पाँच अक्षर उनके दाहिने पाँच हाथ हैं और च आदि पाँच अक्षर बायें पाँच हाथ; ट आदि और त आदि पाँच-पाँच अक्षर उनके पैर हैं। पकार पेट है। फकार को दाहिना पार्श्व बताया जाता है और बकार को बायाँ पार्श्व। भकार को कंधा कहते हैं। मकार उन योगी महादेव शम्भु का हृदय है। 'य' से लेकर 'स' तक सात अक्षर सर्वव्यापी शिव के शब्दमय शरीर की सात धातुएँ हैं। हकार उनकी नाभि है और क्षकार को मेढ्र (मूत्रेन्द्रिय) कहा गया है। इस प्रकार निर्गुण एवं गुणस्वरूप परमात्मा के शब्दमय रूप को भगवती उमा के साथ देखकर मैं और श्रीहरि दोनों कृतार्थ हो गये। इस तरह शब्द-ब्रह्ममय-शरीरधारी महेश्वर शिव का दर्शन पाकर मेरे साथ श्रीहरि ने उन्हें प्रणाम किया और पुन: ऊपर की ओर देखा। उस समय उन्हें पाँच कलाओं से युक्त ॐकारजनित मन्त्र का साक्षात्कार हुआ। तत्पश्चात् महादेवजी का 'ॐ तत्त्वमसि' यह महावाक्य दृष्टिगोचर हुआ, जो परम उत्तम मन्त्ररूप है तथा शुद्ध स्फटिक के समान निर्मल है। फिर सम्पूर्ण धर्म और अर्थ का साधक तथा बुद्धिस्वरूप गायत्री नामक दूसरा महान् मन्त्र लक्षित हुआ, जिसमें चौबीस अक्षर हैं तथा जो चारों पुरुषार्थरूपी फल देनेवाला है। तत्पश्चात् मृत्युंजय-मन्त्र फिर पंचाक्षर-मन्त्र तथा दक्षिणामूर्तिसंज्ञक चिन्तामणि-मन्त्र का साक्षात्कार हुआ। इस प्रकार पाँच मन्त्रों की उपलब्धि करके भगवान् श्रीहरि उनका जप करने लगे। तदनन्तर ऋक्, यजु: और साम-ये जिनके रूप हैं जो ईशों के मुकुटमणि ईशान हैं? जो पुरातन पुरुष हैं? जिनका हृदय अघोर अर्थात् सौम्य है जो हृदय को प्रिय लगनेवाले सर्वगुह्य सदाशिव हैं, जिनके चरण वाम - परम सुन्दर हैं जो महान् देवता हैं और महान् सर्पराज को आभूषण के रूप में धारण करते हैं जिनके सभी ओर पैर और सभी ओर नेत्र हैं, जो मुझ ब्रह्मा के भी अधिपति, कल्याणकारी तथा सृष्टि, पालन एवं संहार करने वाले हैं उन वरदायक साम्बशिव का मेरे साथ भगवान् विष्णु ने प्रिय वचनों द्वारा संतुष्ट चित्त से स्तवन किया।

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