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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

 

अध्याय ४३ 

भगवान् शिव का दक्ष को अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्त की श्रेष्ठता तथा तीनों देवताओं की एकता बताना, दक्ष का अपने यज्ञ को पूर्ण करना, सब देवता आदि का अपने-अपने स्थानको जाना, सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य

ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! इस प्रकार श्रीविष्णु के, मेरे, देवताओं और ऋषियों के तथा अन्य लोगों के स्तुति करनेपर महादेवजी बड़े प्रसन्न हुए। फिर उन शम्भु ने समस्त ऋषियों, देवता आदि को कृपादृष्टि से देखकर तथा मुझ ब्रह्मा और विष्णु का समाधान करके दक्ष से इस प्रकार कहा।

महादेवजी बोले- प्रजापति दक्ष! मैं जो कुछ कहता हूँ, सुनो। मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। यद्यपि मैं सबका ईश्वर और स्वतन्त्र हूँ तो भी सदा ही अपने भक्तों के अधीन रहता हूँ। चार प्रकार के पुण्यात्मा पुरुष मेरा भजन करते हैं। दक्ष प्रजापते! उन चारों भक्तों में पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। उनमें पहला आर्त, दूसरा जिज्ञासु, तीसरा अर्थार्थी और चौथा ज्ञानी है। पहले के तीन तो सामान्य श्रेणी के भक्त हैं। किंतु चौथा का अपना विशेष महत्त्व है। उन सब भक्तों में चौथा ज्ञानी ही मुझे अधिक प्रिय है। वह मेरा रूप माना गया है। उससे बढ़कर दूसरा कोई मुझे प्रिय नहीं है यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ। मैं आत्मज्ञ हूँ। वेद-वेदान्त के पारगामी विद्वान् ज्ञान के द्वारा मुझे जान सकते हैं। जिनकी बुद्धि मन्द है वे ही ज्ञान के बिना मुझे पाने का प्रयत्न करते हैं। कर्म के अधीन हुए मूढ़ मानव मुझे वेद, यज्ञ, दान और तपस्या द्वारा भी कभी नहीं पा सकते।

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिन: सदा।
उत्तरोत्तरतः श्रेष्ठास्तेषां दक्ष प्रजापते।।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी चैव चतुर्थक:।
पूर्वे त्रयश्च सामान्याश्चतुर्थो हि विशिष्यते।।
तत्र ज्ञानी प्रियतरो मम रूपं च स स्मृत:।
तस्मात्प्रियतरो नान्य: सत्यं सत्यं वदाम्यहमू।।

(शि० पु० रु० सं० स० ख० ४३। ४-६ )

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