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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

भगवान् शंकर के ऐसा कहने पर वीरभद्र ने बड़ी उतावली के साथ दक्ष का धड़ लाकर उनके सामने डाल दिया। दक्ष के उस शव को सिर से रहित देख लोककल्याणकारी भगवान् शंकर ने आगे खड़े हुए वीरभद्र से हँसकर पूछा- 'दक्ष का सिर कहाँ है?' तब प्रभावशाली वीरभद्र ने कहा- 'प्रभो शंकर! मैंने तो उसी समय दक्ष के सिर को आग में होम दिया था।' वीरभद्र की यह बात सुनकर भगवान्शंकर ने देवताओं को प्रसन्नतापूर्वक वैसी ही आज्ञा दी, जो पहले दे रखी थी। भगवान् भव ने उस समय जो कुछ कहा, उसकी मेरे द्वारा पूर्ति कराकर श्रीहरि आदि सब देवताओं ने भृगु आदि सबको शीघ्र ही ठीक कर दिया। तदनन्तर शम्भु के आदेश से प्रजापति के धड़ के साथ यज्ञपशु बकरे का सिर जोड़ दिया गया। उस सिर के जोड़े जाते ही शम्भु की शुभ दृष्टि पड़ने से प्रजापति के शरीर में प्राण आ गये और वे तत्काल सोकर जगे हुए पुरुष की भांति उठकर खड़े हो गये। उठते ही उन्होंने अपने सामने करुणानिधि भगवान् शंकर को देखा। देखते ही दक्ष के हृदय में प्रेम उमड़ आया। उस प्रेम ने उनके अन्तःकरण को निर्मल एवं प्रसन्न कर दिया। पहले महादेवजी से द्वेष करने के कारण उनका अन्तःकरण मलिन हो गया था। परंतु उस समय शिव के दर्शन से वे तत्काल शरदऋतु के चन्द्रमा की भांति निर्मल हो गये। उनके मन में भगवान् शिव की स्तुति करने का विचार उत्पन्न हुआ। परंतु वे अनुरागाधिक्य के कारण तथा अपनी मरी हुई पुत्री का स्मरण करके व्याकुल हो जाने के कारण तत्काल उनका स्तवन न कर सके। थोड़ी देर बाद मन स्थिर होनेपर दक्ष ने लज्जित हो लोकशंकर शिवशंकर को प्रणाम किया और उनकी स्तुति आरम्भ की। उन्होंने भगवान् शंकर की महिमा गाते हुए बारंबार उन्हें प्रणाम किया। फिर अन्तमें कहा-

'परमेश्वर! आपने ब्रह्मा होकर सबसे पहले आत्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करने के लिये अपने मुख से विद्या, तप और वत धारण करनेवाले ब्राह्मणों को उत्पन्न किया था। जैसे ग्वाला लाठी लेकर गौओं की रक्षा करता है उसी प्रकार मर्यादा का पालन करनेवाले आप परमेश्वर दण्ड धारण किये उन साधु ब्राह्मणों की सभी विपत्तियों से रक्षा करते हैं। मैंने दुर्वचनरूपी बाणों से आप परमेश्वर को बींध डाला था। फिर भी आप मुझपर अनुग्रह करने के लिये यहाँ आ गये। अब मेरी ही तरह अत्यन्त दैन्यपूर्ण आशावाले इन देवताओं पर भी कृपा कीजिये। भक्तवत्सल! दीनबन्धो! शम्भो! मुझमें आपको प्रसन्न करने के लिये कोई गुण नहीं है। आप षटविध ऐश्वर्य से सम्पन्न परात्पर परमात्मा हैं। अत: अपने ही बहुमूल्य उदारतापूर्ण बर्ताव से मुझपर संतुष्ट हों।'

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