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देवकांता संतति भाग 6

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2057
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

दारोगा की आंखें सिकुड़कर जैसे एकदम उल्लू की आंखों से जा मिलीं। वह कुछ सोचने लगा, सामने खड़ा दलीपसिंह उसे अभी तक उसी तरह घूर रहा था। दारोगा को चुप देखकर वह दहाड़ उठा-- ''सच्चाई बोलो दारोगा कि ये क्या बखेड़ा है वरना फिर कभी बोलने का मौका न मिलेगा।''

'सोचने दो महाराज!'' दारोगा बोला - 'आप भी जरा गुस्सा थूककर सोचने की कोशिश करिए। बड़ी अजीब बात है कि हम दोनों को इस एक लिखाई के खत मिलते रहे हैं। मेरा दिल जानता है कि ये मेरी लिखाई नहीं है और फिर आप भी यही कहते हैं। इसका मतलब बीच में ही अवश्य कहीं गड़बड़ है।''

दलीपसिंह के दिमाग ने भी जैसे काम किया। वह अपेक्षाकृत संतुलित से लहजे में बोला-- 'अब क्या करना चाहते हो?''

''बात साफ है महाराज!'' दारोगा बोला-- 'ये सारी ही गड़बड़ ऐयार बंसीलाल की है। हमारा पहला सम्बंध इन खतों के जरिए ही हुआ था। उससे पहले न तो आप मेरी लिखाई से वाकिफ थे, न मैं आपकी! कदाचित इसी बात का फायदा बंसीलाल ने उठाया है। हमारे सभी खत वह लाया - ले जाया करता है। जरूर उसी ने बीच में ये गड़बड़ की है। वह आपके खतों की नकल करके मुझे देता रहा है और मेरे खतों की नकल आपको।''

बात दलीपसिंह के दिमाग में चोट कर गई बोला-- ''तुम कहना क्या चाहते हो?''

''जरूर बीच में बंसीलाल गद्दारी कर गया है महाराज।'' दारोगा बोला-- ''हम दोनों के खत उसी के पास होंगे। वह हमें फंसाना चाहता होगा।''

''तुम तो कहते थे बंसीलाल तुम्हारा बहुत यकीनी ऐयार है?''

''कहा तो था -- और सच भी था!'' दारोगा बोला- ''वाकई वह मेरा यकीनी ऐयार था। इस बात का तो मुझे ख्वाब में भी गुमान नहीं था कि वह मेरे साथ दगा करेगा। मगर अब जब उसका भेद खुला है - तो साफ है - वह हमसे गद्दारी कर गया।''

''ऐसा भी तो हो सकता है कि यह सब बखेड़ा तुम्हारा हो।'' दलीपसिंह बोला- ''बंसीलाल तुम्हारा ही तो ऐयार है। हो सकता है कि खुद तुमने ही हमें किसी बखेड़े में फंसाने के लिए यह चाल चली हो। तुमने ही वंसीलाल से खत लिखवाकर हमें भिजवाए हों और उसी से हमारे खतों की नकल करवाकर इस वक्त हमारे सामने रख दिए हों -- ताकि तुम बंसीलाल को मुजरिम साबित करो और खुद को हमारी नजरों में साफ कर लो।''

''आप कैसी बेयकीनी की बात सोच रहे हैं महाराज!'' दारोगा बोला- ''मैं पहले भी धर्म की कसम खा चुका हूं कि मैंने कोई भी बात आपके खिलाफ सोची तक नहीं है। अगर आपके खत बंसीलाल के हाथ लगे हैं तो हमारे भी लगे हैं। हमें भी खतों के गुम होने का उतना ही खतरा है, जितना आपको है, शायद हमें आपसे ज्यादा ही होगा। आप तो फिर भी एक अलग रियासत के राजा हैं, आपके खत अगर उमादत्त तक पहुंच भी जाएं तो आपका कुछ नहीं बिगड़ेगा। आपकी और उमादत्त की तो पहले से ही दुश्मनी चल रही है, लेकिन मैं तो अभी तक उनका दारोगा ही हूं - जरा सोचिए कि अगर बंसीलाल ने मेरे खत उमादत्त तक पहुंचा दिए तो मेरा क्या अंजाम होगा? खतों के गायब होने का ज्यादा रंज तो मुझे होना चाहिए और है। ऐसी हालत में आप मुझ ही पर शक कर रहे हैं। इससे तो मेरा एकमात्र सहारा जो आप हैं - वह भी खत्म हो जाएगा। मैं सच कहता हूं आपसे - आपके साथ मैंने किसी तरह की बुराई नहीं की है। और -- आप मुझ पर कतई शक न करें। इस मुसीबत का मुकाबला भी हम दोनों को मिलकर ही करना चाहिए। अगर हम दोनों आपस में लड़े तो फिर इसका फायदा भी बंसीलाल ही उठाएगा।''

''वो तो सब कुछ ठीक ही है !'' दलीपसिंह बोले- ''लेकिन मैं किस तरह यकीन कर लूं कि यह साजिश तुम्हारी नहीं है?''

''बात बढ़ाने के लिए तो मैं भी आप पर शक कर सकता हूं कि आपने ही मेरे खत गायब किए हैं, मगर मेरा कमजोर पहलू ये है कि बंसीलाल मेरा ऐयार था। दूसरी बात ये है कि मैं बात को बढ़ाना नहीं चाहता हूं। अगर हम एक-दूसरे पर शक करेंगे तो दोनों ही नुकसान में रहेंगे। आप अपने दिमाग से कतई निकाल दे कि मैंने आप के साथ किसी तरह की बुराई की है। इस वक्त आपसे कहीं बदतर हालत मेरी है। जरा आप खुद ही ठण्डे दिमाग से सोचिए कि अगर मेरे दिल में कोई ऐसी बात होती तो मैं यहां कमला और कंचन को लेकर आता?''

''अब तो हमारा यकीन तुम पर इसी सूरत में पक्का हो सकता है कि तुम अपने हाथ से कंचन और कमला की हत्या करो।''

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