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देवकांता संतति भाग 6

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2057
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''मैंने अपना यह अभियान काफी पहले ही से शुरू कर दिया था।'' दारोगा ने बताया- ''इस वक्त मेरे पास मेरे पक्ष के आदमियों की संख्या सौ के लगभग हैं। वे सब आदमी बराबर इसी कोशिश में लगे हुए हैं कि वे अपने साथियों और दोस्तों को अपने साथ ले सकें। शुरू-शुरू में यह अभियान काफी मंदा चला था.. लेकिन ज्यों-ज्यों संख्या बढ़ती गई, काम आसान होता गया। हर रोज कम-से-कम बीस आदमी हमारे पक्ष में हो जाते हैं। मेरे ख्याल से पंद्रह दिन में हमारी ताकत काफी बढ़ जाएगी। यह निश्चय होते ही मैं बगावत का डंका बजा दूंगा।''

''उससे पहले ही हमारे आदमी भी गुप्त रूप से चमनगढ़ में पहुंच जाएंगे।'' दलीपसिंह ने बात पूरी की।

''जी हां!'' दारोगा बोला- ''बस... उस दिन से पहले उमादत्त को हमारे किसी काम की भनक न लग सके, यही हमारी कोशिश है।''

''क्या तुम उनमें से किसी के नाम बता सकते हो.. जो हमारे पक्ष में हैं?'' दलीपसिंह ने सवाल किया।

''माफ करें।'' दारोगा बोला- ''अभी मैं ऐसा न करने के लिए मजबूर हूं।''

उनके बीच इसी तरह की कुछ और बातें हुईं और फिर हम दलीपसिंह से विदा लेकर वापस रवाना हो गए। मुझे इस बात की बेहद खुशी थी कि खतों का भेद नहीं खुला था। दारोगा और मैं हिफाजत से घर पहुंच गए। किसी को भनक तक नहीं लगी कि रात को दारोगा सा'ब कहीं बाहर गए थे। इसके बाद.. आठ दिन तक मैं उनके पत्रवाहक का काम करता रहा। उन खतों को इस कागज के साथ लगाकर आपको पढ़ने के लिए मजबूर करना, समय बर्बाद करना है। हालांकि वे सभी खत इस कलमदान में हैं, मगर मैंने उन्हें इन कागजों से संलग्न न करके अलग, कलमदान में सबसे नीचे रख दिए हैं। अगर आप पढ़ना चाहें तो पढ़ सकते हैं। वैसे उन सभी खतों का मकसद ये है कि आज फौज के इतने आदमी हमारे पक्ष में हो गए। आज उतने हो गए। आज इतने ऐयारों ने मुझसे मिलकर बात की.. आज उतनों ने की। उधर से दलीपसिंह हर बात में अलफाजों को अदल-बदल करके यही लिखते रहे कि तुम इसी तरह काम करे जाओ। बगावत के दिन से एक दिन पहले मुझे खबर कर देना.. मेरी गुप्त फौजें तुम्हारी हिफाजत के लिए वहां पहुंच जाएंगी। इत्यादि।

दारोगा मेघराज और दलीपसिंह की मुलाकात के बाद की नौवीं रात ने इस कहानी में एक नया अनोखा और ऐसा दिलचस्प रंग भर दिया। मुझे बहुत ही खुशी हुई। उस रात दारोगा के तलब करने पर मैं वहां पहुंचा। मैने देखा.... और दिन के मुकाबले आज दारोगा कुछ घबराया हुआ-सा था। उसने मुझे खत दिया और बोला-- ''बंसीलाल, जितनी जल्दी हो सके... यह खत दलीपसिंह तक पहुंचा दो और आज ही की रात उसका जवाब लेकर फौरन लौट आओ। इस वक्त अगर तुमने जल्दी से काम नहीं किया तो मैं तो बर्बाद होऊंगा ही.. तुम्हें भी बर्बाद कर दूंगा।'' फिर कही...मुझे मेरे बचपन के गुनाह की धमकी।

मगर मैंने पूछ ही लिया- ''लेकिन दारोगा सा'ब, इस तरह घबराने की क्या बात हो गई?''

''हमारे पास इतना वक्त नहीं है बंसीलाल कि तुम्हारे सवालात का जवाब दे सकें।'' वह उत्तेजित अवस्था में कुछ झुंझलाता हुआ सा बोला-- ''फिलहाल तुम हमारे हुक्म की तामील करो। वक्त मिलने पर हम तुमसे सारा हाल कहेंगे।''

मैंने चुपचाप दारोगा से वह खत ले लिया। आज का यह खत काफी मोटा था। यानी यह खत कम-से-कम चार पेजों में लिखा था। मैं समझ गया कि आज कोई ऐसी बात हो गई है - जो दारोगा के हक में नहीं है, जरूर वही सब कुछ इस खत में लिखा है। मैंने सोचा कि बेकार ही मेघराज से सवाल करने की क्या जरूरत है। रास्ते में मैं खत पढ़ लूंगा। यही सोचकर मैंने चुपचाप खत लिया और बाहर चल पड़ा।

'ध्यान रहे बंसीलाल।'' पीछे से मेघराज बोला- ''तुम्हें आज ही रात इसका जवाब लेकर लौटना है।''

मैने 'हॉ' में गरदन हिलाई और कमरे से बाहर निकल गया। अपने घोड़े पर सवार होकर मैं रवाना हो गया। रास्ते में मैंने जब वह खत पढ़ा तो दिल खुशी से उछलने लगा। मुझे लगा कि भगवान खुद ही दुष्ट दारोगा को उसकी दुष्टता का इनाम दे रहा है। मैंने उस खत की नकल की। मेरे ख्याल से आप लोग भी उस खत का मजमून पढ़ने के लिए उतावले हो गए होंगे। घबराइए नहीं - मैं आपको ज्यादा परेशान नहीं करूंगा। वह चार पेज का खत आलपिन के जरिए इसी कागज के पीछे लगा हुआ है।

 

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