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देवकांता संतति भाग 6

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2057
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''क्या मतलब?'' मैं हल्के से चौंका-- ''उमादत्त की रियासत को खतरा क्यों है?''

''बहुत बड़ा खतरा है बेटे।'' पिताजी बोले- ''इस रियासत पर, खासकर उमादत्त पर मौत के काले बादल मंडरा रहे हैं। वे बादल किस रूप में हैं.. यह केवल मैं जानता हूं और वही भेद मैंने इस कलमदान में कैद कर दिया है। तुम इस कलमदान और बहू 'चंद्रप्रभा' को लेकर फौरन इसी वक्त यहां से कहीं दूर निकल जाओ। यहां से कहीं दूर किसी मुनासिब जगह पर जाकर इसे खोल लेना और उस भेद से वाकिफ हो जाना।''

उनके चेहरे की घबराहट - उस पर उभर आने वाला पसीना - इन सब बातों ने मुझे ज्यादा ही परेशान कर दिया। उनके इन अंदाजों से साफ लगता था कि वे किसी गहरी मुसीबत में फंस गए हैं। मैं बोला- ''पिताजी, साफ-साफ बताओ कि बात क्या है.. आप किस बखेड़े में फंस गए हैं?''

''इतनी बातें करने का वक्त नहीं है, बेटे।'' उन्होंने बड़े प्यार से कहा- ''और ज्यादा देर तक तुम यहां रहे तो सारा किया-धरा चौपट हो जाएगा। यह कलमदान तुम पर सारा भेद खोल देगा। इस वक्त मैं केवल इतना ही बता सकता हूं कि एक कमीना चमनगढ़ की गद्दी से उमादत्त को उतारकर खुद राजा बनना चाहता है। उसने एक ऐसा घिनौना पाप किया है जिसकी दूसरी मिसाल दुनिया में नहीं हो सकती। वह जान गया है कि यह भेद मुझे मालूम हो चुका है। अब वह मेरी जान का ग्राहक बन गया है। दुनिया में यह कलमदान ही एक ऐसी चीज है.. जिसका डर उसे उमादत्त से गद्दारी करने से रोके रखेगा। अगर उसने हमें यहां आ घेरा और ये कलमदान भी उसे चमक गया तो वह हममें से किसी को जिंदा नहीं छोड़ेगा।''

''तो फिर आप यहां क्यों रहते हैं.. आप भी हमारे साथ ही भाग निकलिए।'' मैंने कहा।

''तुम अभी इस बात को नहीं समझते।'' पिताजी ने कहा- ''मेरा यहां से भागना एक तरह से नामुमकिन है। तुम बहस में मत पड़ो। जो मैं कहता हूं तुम वही करो। अगर इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता होता तो मैं तुमसे ऐसा कदापि न कहता। मेरी बात मानकर तुम दोनों फौरन यहां से निकल जाओ। चमनगढ़ से बाहर तुम किसी जंगल में कोई मुनासिब जगह देखकर वहां समय बिताना। वहीं तुम इस कलमदान को खोल लेना और हां, मेरी एक विनती और मानना.. वह यह कि जब तक कोई उमादत्त को हटाकर खुद राजा बनने की कोशिश न करे, तुम इस कलमदान के भेद को किसी पर भी जाहिर मत करना। इस भेद को तुम उस वक्त तक सुरक्षित रखना.. जब तक वह पापी गद्दारी न कर दे जैसे ही वह राजा बने, तुम उमादत्त और चमनगढ़ की प्रजा के सामने इसका भेद खोल देना। इस वक्त यहां से मेरा निकलना मुनासिब नहीं है। अगर जिंदा रहा तो मैं किसी भी तरह तुमसे मिल लूंगा।''

''लेकिन आप इस भेद को अभी ही उमादत्त के सामने जाकर क्यों नहीं खोल देते?'' मैंने पूछा।

''तुम अभी नहीं समझते हो, बेटे।'' पिताजी ने कहा- ''इस वक्त किसी का भी उमादत्त तक पहुंचना नामुमकिन है।''

इस तरह से.. मैंने बातों में उनका जितना वक्त लेना चाहा, उनकी घबराहट, परेशानी और उलझन बढ़ती ही गई। जब मैंने यह जिद की कि मैं आपको यहां इस तरह किसी खतरे में छोड़कर नहीं जाऊंगा। मैंने कहा कि या तो आपको भी हमारे ही साथ यहां से निकलना होगा, अन्यथा हम भी नहीं जाएंगे तो न जाने क्यों उनके आंसू निकल पड़े, बोले- ''मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी, राम बेटे।''

''कैसी पिताजी?'' मैंने घबराकर पूछा।

''ऐसी ही जिद की।'' वे बोले- ''तुम नहीं समझ रहे हो कि तुम कितना जरूरी वक्त खराब कर रहे हो। मेरे और अपने साथ-साथ बहू पर भी कितना बड़ा खतरा बढ़ा रहे हो। अगर मेरा हुक्म नहीं मान सकते, राम बेटे तो एक पिता की विनती सुन लो। तुम फौरन यहां से निकल जाओ।'' ये अलफाज कहते-कहते वे बुरी तरह से रो पड़े। मेरा कलेजा फट गया। अंत में मुझे उनकी बात माननी ही पड़ी और मैं कलमदान तथा चंद्रप्रभा को लेकर वहां से चल दिया। मुझे विदा करते-करते उन्होंने कहा था- ''कलमदान की हिफाजत हमेशा मेरी तरह अपनी जान से बढ़कर करना। इसके बारे में जो-जो बातें मैंने तुमसे कहीं हैं, वे हमेशा याद रखना और उनका पालन करना।''

जिस वक्त हम जुदा हुए तीनों की ही आंखों में आंसू थे।

घोड़ों पर सवार होकर मैं और प्रभा जंगल की ओर रवाना हो गये। रास्ते में हम बातें करते रहे कि यह सब क्या चक्कर हो सकता है? वह कौन है जो उमादत्त से गद्दी छीनना चाहता है। ऐसा वह कौन-सा पाप है, जिसके डर से वह अपना इतना बड़ा काम रोक देगा? इस कलमदान में क्या भेद है?

उस सारी रात हम चलते रहे। दिन में भी चलते ही रहे। चमनगढ़ से बहुत दूर निकल जाने के बाद हमें जंगल में एक सराय मिली। वह सराय सुनसान, उजाड़ और खाली पड़ी थी। अपने पिता के कहे मुताबिक हमने कुछ दिन के लिए वह जगह मुनासिब महसूस की। हमने वहां डेरा डाल लिया। तीसरे दिन सुबह हमने कलमदान की सील तोड़ दी। उसके अंदर कागजों के कुछ पुलंदों के अलावा कुछ नहीं था।

 

० ० ०

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