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देवकांता संतति भाग 6

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2057
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

'आग!' गौरवसिंह ने जब पहचान के लफ्ज में ही जवाब दिया तो मैं इन्हें पूरी तरह पहचान गया। क्योंकि मैंने किसी तरह का भेस नहीं बदला था, अत: गौरवसिंह को तो मुझे पहचानने में किसी तरह की परेशानी ही नहीं हुई। उधर, मेरे मुंह से पहचान का लफ्ज सुनकर यह शंका भी इनके दिमाग से जाती रही कि कहीं महाकाल के भेस में उनके सामने दुश्मन का कोई ऐयार तो नहीं आ गया है।

''तुम यहां कब से मौजूद हो?'' गौरवसिंह ने मुझसे सवाल ' किया।

''मैं शाम से ही मेघराज के पीछे हूं।'' मैंने जवाब दिया- ''उस - वक्त रात का पहला पहर शुरू हुआ ही था जब दारोगा महल से यहां आ गया। उस वक्त से घर पर ही है। मैं सामने वाले दरख्त पर बैठा उस पर नजर रखे हुए हूं। उस वक्त से अभी तक दारोगा कहीं बाहर नहीं गया है और ऐसा कोई खास आदमी उससे मिलने भी नहीं आया है। उसे मिलने वाला पहला आदमी अब नजारासिंह ही आया है। सो उसके पीछे-पीछे आप...।''

''हमें लगता है कि नजारासिंह के हाथ राजा दलीपसिंह ने मेघराज के लिए कोई बहुत ही जरूरी और भेद-भरा पैगाम भिजवाया है।'' गौरवसिंह धीरे से बोला- ''हम उस पैगाम के बारे में उस वक्त तक नहीं जान सकेंगे, जब तक कि इनकी बात न सुनी जाए।''

''हमारा ख्याल है कि किसी तरह इन लोगों की बातचीत सुनने का उद्योग किया जाए।''

इसके अलावा हमारे बीच दूसरी कई छोटी-मोटी बातें हुई और फिर दोनों सहमत राय से दारोगा के मकान के पिछले भाग से चढ़कर छत पर पहुंच गए। यहां इतना ही कहा जा सकता है कि बिना किसी खास, तरद्दुद के हम लोग उस कमरे के रोशनदान तक पहुंच गए जिसमें अभी-अभी कन्दीलों की रोशनी ने अंधेरे को शिकस्त दी थी। हमने रोशनदान से देखा - कमरे के अंदर एक तख्त पर मेघराज और नजारासिंह बैठे थे। मेघराज की आंखें बता रही थी कि वह अभी-अभी सोकर उठा है। तख्त पर बैठकर वह नजारासिंह से बोला- ''कहो, क्या पैगाम लाए हो?''

''दलीपसिंह ने आपको तलब फरमाया है।'' नजारासिंह ने कहा।

''क्या तुम्हें मालूम है कि किस सबब से?'' मेघराज ने पूछा।

''जी हां।'' नजारासिंह ने जवाब दिया- ''उन्होंने कहा है कि मैं सारे हालात आपको मुख्तसर में बता दूं। बात ये है कि आपने जो शेरसिंह को गिरफ्तार करके हमें दिया था, वह भाग गया है। अगर भाग ही जाता तो तब भी इतना रंज और अफसोस न होता -- मगर वह महाराज सुरेंद्रसिंह की नाक काटकर ले गया है। साथ ही यह पत्र भी वहां छोड़ गया है।'' नजारासिंह ने एक पत्र निकालकर मेघराज की ओर बढ़ा दिया।

मेघराज ने पत्र पढ़ा और पूरा पढ़ने के बाद बोला--- ''ये तो बड़ा बुरा हुआ।''

नजारार्सिंह बेचारा चुप रहा, आखिर बोलता भी क्या?

''लेकिन अब वे मुझे तलब करके, मुझसे किस तरह की बात करना चाहते हैं?'' मेघराज ने कहा- ''उसको पहले ही हिफाजत में रखना चाहिए था।''

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