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देवकांता संतति भाग 6

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2057
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

चौथा बयान


हमारे विचार से अब पाठकों के सामने संतति का यह कथानक जो पहले भाग में बहुत ही उलझा हुआ-सा महसूस हो रहा था, अब तक अस्सी प्रतिशत साफ हो चुका है। बाकी आगे खुलता ही चला जाएगा। हमारे ख्याल से आप यह भी महसूस कर रहे होंगे कि, अब हम कथानक में किसी नई घटना का जिक्र बिल्कुल नहीं कर रहे हैं और जो भी कुछ लिख रहे हैं, वह पहले भागों में से ही किसी-न-किसी बयान से ताल्लुक रखता है और अब हम भेदों को खोलने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं। अब आपको यह शिकायत भी दूर हो जाएगी कि संतति में हम विजय इत्यादि का काम कम दे रहे हैं! आपको यह जानकर खुशी होगी कि हमारा यह बयान भी विजय और अलफांसे से ही ताल्लुक रखता है।

हालांकि यह रात का आखिरी पहर चल रहा है, मगर हमारे ये पात्र सोने का नाम नहीं ले रहे हैं। वो देखो---एक कमरे में चिराग जल रहा है। उस चिराग के चारों तरफ विजय, अलफांसे. गुरुवचनसिंह, गौरवसिंह, महाकाल और रैना बैठे हैं। रैना और अलफांसे का मधुर मिलन आज दिन में ही हो चुका है। विजय, अलफांसे और गुरुवचनसिंह इत्यादि तो सो चुके थे, लेकिन गौरवसिंह और महाकाल ने आकर उन्हें जगाया है। हम जानते हैं कि रात के इस वक्त उनका वहां बैठना बेसबब नहीं है, जरूर कोई खास बात है।

आओ - इनके पास चलकर सुनते हैं कि ये किस तरह की बातें कर रहे हैं?

''मैं आपके हुक्म के मुताबिक राजा दलीपसिंह के महल के आसपास ही भेस बदलकर बालादवी कर रहा था।'' गौरवसिंह विजय से कह रहा था- ''रात के तीसरे पहर तक तो ऐसी कोई घटना नहीं हुई, जो यहां कहने लायक होती। दूसरे पहर के अंत में दलीपसिंह का एक खास ऐयार नजारासिंह, महल से निकला और घोड़े पर सवार होकर जंगल की तरफ को चल दिया। उसके महल से निकलकर चलने का ढंग ऐसा था कि मुझे उस पर कुछ शक-सा हुआ। घोड़ा तो मैं भी अपना यहां से ले ही गया था, सो मैं उसके पीछे लग गया। मैं उसका पीछा करता रहा और हर कदम पर मेरी कोशिश यही थी कि उसे मेरे बारे में पता न लग सके। उस वक्त मैं थोड़ा चौंका जब उसका रुख चमनगढ़ की ओर हुआ।''

''मगर मैं उसके पीछे लगा ही रहा। चमनगढ़ की सरहद के बाहर ही वह अपने घोड़े से उतरा और उसे वहीं एक पेड़ से बांधकर चमनगढ़ में दाखिल हो गया। लिहाजा मैं भी अपना घोड़ा वहीं छोड़ पैदल ही उसके पीछे चल दिया। वह चमनगढ़ में दाखिल होकर सीधा दारोगा मेघराज के घर की तरफ बढ़ा। मैं समझ गया कि वह निश्चय ही दलीपसिंह का कोई पैगाम लेकर खासतौर से मेघराज के पास आया है।''

''मैं दारोगा साहब के मकान के बाहर ही एक दरख्त पर बैठा उसकी निगरानी कर रहा था।'' गौरवसिंह से आगे महाकाल बोला- ''मैंने नजारासिंह को दारोगा के मकान में दाखिल होते देखा। मैंने सोचा कि इन लोगों की बातें सुननी चाहिए। अभी यह ख्याल करके मैं दरख्त से नीचे उतरना ही चाहता था कि पीछे से एक आदमी को आते देख ठिठक गया। इस व्यक्ति के आने का ढंग ऐसा था मानों वह खुद को छुपाना चाहता हो। दरख्त पर बैठा हुआ मैं यह भी भांप गया कि यह आदमी नजारासिंह का पीछा करता हुआ यहां तक आया है। जैसे ही मेरे दिमाग में यह बात आई उसी के साथ यह ख्याल भी आया कि दलीप नगर से गौरवसिंह ही इसके पीछे लग सकते हैं। क्योंकि गौरवसिंह ने भेस बदल रखा था। इस सबब से पहले तो मैंने इन्हें पहचाना नहीं, लेकिन जब हाव-भाव और चाल पर गौर किया तो पहचान गया। उस वक्त गौरवसिंह दारोगा के मकान के अंदर जाने की टोह में थे कि मैं दरख्त से उतरकर इनके पास पहुंचा और पहचान का यह लफ्ज कहा- 'पानी।'

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